पूरी दुनिया में नॉनवेज खाने वाले लोगों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। अपने देश में भी यह संख्या काफी ज्यादा है और उसी हिसाब से चिकन की मांग भी दिनोदिन बढ़ती जा रही है। होली जैसे त्योहारों में चिकन और मीट की खपत कई गुना बढ़ जाती है। ऐसे में पोल्ट्री फ़ार्म के ऊपर यह दवाब बढ़ता जा रहा है कि वो लोगों की मांग की आपूर्ति करें। इस बढ़ते दवाब के कारण ही पोल्ट्री फ़ार्म में मुर्गियों को जल्दी बड़ा करने और उन्हें बीमारी से बचाने के लिए एंटीबायोटिक दवाइयां दी जाने लगी हैं।
हालांकि पोल्ट्री फार्म के कई विज्ञापनों में यह दावा किया जाता है कि उनके यहां एंटीबायोटिक दवाइयों का बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है। विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) ने हाल ही में पोल्ट्री फ़ार्म में एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल की कड़ी निंदा की है। सीएसई के उप महानिदेशक चंद्र भूषण ने कहा, ‘‘यह पूरी तरह से गलत तथ्य है और भारतीय पोल्ट्री उद्योग में एंटीबायोटिक का गलत इस्तेमाल किया जाता है। पोल्ट्री क्षेत्र में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल दिनोदिन बढ़ता जा रहा है, और यह इंसान की सेहत के लिए बहुत ही खतरनाक है।’’
विशेषज्ञों के अनुसार पोल्ट्री फार्म या मुर्गी पालकों का ऐसा मानना है कि मुर्गियों को खाने में दाने के साथ एंटीबायोटिक दवाइयां खिलाने से उनका विकास तेजी से होगा। इसलिए वे अधिक मात्रा में मुर्गियों को एंटीबायोटिक दवाइयां खिला रहे हैं। जबकि इस तरह से मुर्गियों को एंटीबायोटिक दिए जाने से यह दवा इंसानों के शरीर में भी पहुंच रही है। जिसके कारण कई एंटीबायोटिक दवाइयों के प्रति बैक्टीरिया और वायरस में प्रतिरोध बढ़ रहा है और वे कई मामलों में बेअसर साबित हो रहे हैं। इसके अलावा बिना किसी बीमारी हुए ही शरीर में एंटीबायोटिक पहुंचने से आपको कई तरह के दुष्प्रभाव भी झेलने पड़ सकते हैं।
वैसे चिकन या मीट में एंटीबायोटिक दवाइयों की मौजूदगी, कई देशों की गंभीर समस्या है लेकिन ज्यादातर देशों में इसे लेकर कठोर नियम बन चुकें हैं और एक सुरक्षित मात्रा निर्धारित कर दी गयी है, जबकि भारत में अभी तक ऐसा कोई नियम नहीं है। इसलिए यह ज़रुरी है कि इस बारे में सोचा जाए और एंटीबायोटिक दवाइयों के इस्तेमाल की एक निश्चित सुरक्षित सीमा निर्धारित की जाए।
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साभार : भाषा (PTI)