अष्टांग योग की उपयोगिता
संसार के सभी व्यक्ति सुख एवं शान्ति चाहते हैं तथा विश्व में जो कुछ भी व्यक्ति कर रहा है, उसका एक ही मुख्य लक्ष्य है कि इससे उसे सुख मिलेगा। व्यक्ति ही नहीं, कोई भी राष्ट्र अथवा विश्व के सम्पूर्ण राष्ट्र मिलकर भी इस बात पर सहमत हैं कि विश्व में शान्ति स्थापित होनी चाहिए। प्रतिवर्ष इसी उद्देश्य से ही एक व्यक्ति को, जो कि सर्वात्मना शांति स्थापित करने के लिए समर्पित होता है, उसको नोबेल पुरस्कार भी प्रदान किया जाता है। परन्तु यह शान्ति कैसे स्थापित हो, इस बात को लेकर सभी असमंजस की स्थिति में हैं।
सभी लोग अपने-अपने विवेक के अनुसार इसके लिए कुछ चिन्तन करते हैं, परन्तु एक सर्वसम्मत मार्ग नहीं निकल पाता। इसका अर्थ है कि दुनिया के लोग जिन उपायों पर विचार कर रहे हैं, उनमें सार्थकता तो है, परन्तु परिपूर्णता, समग्रता एवं व्यापकता नहीं। प्रचलित मत पन्थों, सप्रदायों एवं तथाकथित धर्मों को अपनाने से जहाँ व्यक्ति को एक ओर थोड़ी शान्ति मिलती है, वहीं इन संप्रदायों के पचड़े में पड़कर व्यक्ति कुछ ऐसे झूठ अन्धविश्वासों, कुरीतियों एवं मिथ्या आग्रहों में फँस जाता है। जिनसे निकलना मुश्किल हो जाता है। साथ ही वह पूर्ण सत्य से भी वंचित रह जाता है। परन्तु क्या ऐसा कुछ नहीं हो सकता, जिस पर दुनिया के हर इन्सान चल सकें? क्या ऐसे कुछ नियम, सिद्धान्त, मान्यताएँ एवं मर्यादाएँ हो सकती हैं, जिनपर पूरी दुनिया के सभी व्यक्ति चल सकें? जिससे किसी भी व्यक्ति एवं राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता नहीं होती हो और न ही किसी का व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध होता हो, जिसको प्रत्येक व्यक्ति अपना सकता हो और जीवन में पूर्ण सुख, शान्ति एवं आनन्द को प्राप्त कर सकता है।
यह है- महर्षि पतंजलि-प्रतिपादित अष्टांग योग का पथ। यह कोई मत-पन्थ या सप्रदाय नहीं, अपितु जीवन जीने की सम्पूर्ण पद्धति है। यदि संसार के लोग वास्तव में इस बात को लेकर गम्भीर हैं कि विश्व में शांति स्थापित होनी ही चाहिए तो इसका एकमात्र समाधान है अष्टांग योग का पालन। अष्टांग योग के द्वारा ही वैयक्तिक एवं सामाजिक समरसता, शारीरिक स्वास्थ्य, बौद्धिक जागरण, मानसिक शान्ति एवं आत्मिक आनन्द की अनुभूति हो सकती है। अब हम संक्षेप में इस अष्टांग योग के सम्बन्ध में विचार करते हैं। महर्षि पतंजलि योगसूत्रों के माध्यम से लिखते हैंः
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोsष्टावङ्गानि।। (योगसूत्र- 2.29)
- यम, 2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम, 5. प्रत्याहार, 6. धारणा, 7. ध्यान तथा 8. समाधि- ये योग के आठ अंग हैं। इन सब योगांगों का पालन किये बिना कोई भी व्यक्ति योगी नहीं हो सकता। यह अष्टांग योग केवल योगियों के लिए ही नहीं, अपितु जो भी व्यक्ति जीवन में स्वयं पूर्ण सुखी होना चाहता है तथा प्राणिमात्र को सुखी देखना चाहता है, उन सबके लिए अष्टांग योग का पालन अनिवार्य है। अष्टांग योग धर्म, अध्यात्म, मानवता एवं विज्ञान की प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरता है। इस दुनिया के आपसी संघर्ष को यदि किसी उपाय से रोका जा सकता है तो वह अष्टांग योग ही है। अष्टांग योग में जीवन के सामान्य व्यवहार से लेकर ध्यान एवं समाधि-सहित अध्यात्म की उच्चतम अवस्थाओं तक का अनुपम समावेश है। जो भी व्यक्ति अपने अस्तित्व की खोज में लगा है तथा जीवन के पूर्ण सत्य को परिचित होना चाहता है, उसे अष्टांग योग का अवश्य ही पालन करना चाहिए। यम और नियम अष्टांग योग के मूल आधार हैं।
- यम
अष्टांग योग का प्रथम अंग है यम। यम शब्द ‘यमु उपरमे’ धातु से निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है – यम्यन्ते उपरम्यन्ते निवर्त्यन्ते हिंसादिभ्य इन्द्रियाणि यैस्ते यमाः ‘अर्थात् जिनके अनुष्ठान से इन्द्रियों एवं मन को हिंसादि अशुभ भावों से हटाकर आत्मकेन्द्रित किया जाये, वे यम हैं’। महर्षि पतंजलि ने इन यमों की परिगणना इस प्रकार की हैः
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।। (योगसूत्र- 2.30)
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह-ये पाँच यम हैं। अब हम यहाँ क्रमश इनका संक्षेप में वर्णन करते हैं।
(क) अहिंसा- अहिंसा का अर्थ है किसी प्राणी को मन, वचन तथा कर्म से कष्ट न देना। मन में भी किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वारा भी कष्ट न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी स्थान पर ‘किसी भी दिन’ किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, अपितु प्राणिमात्र से आत्मबल प्रेम तथा सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति मैत्री एवं करुणा की दृष्टि रखना यही यथार्थ रूप में अहिंसा है। महर्षि व्यास भी कहते हैं-
तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह। (योगसूत्र-व्यासभाष्य- 2.30)
(ख) सत्य- जैसा देखा, सुना तथा जाना हो, वैसा ही शुद्ध भाव मन में हो, वही प्राणी में तथा उसी के अनुरूप कार्य हो तो वह सत्य कहलाता है। दूसरों के प्रति ऐसी वाणी कभी नहीं बोलनी चाहिए, जिसमें छल-कपट हो, भ्रान्ति पैदा होती हो अथवा जिसका कोई प्रयोजन न हो। ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जिससे किसी प्राणी को दुःख न पहुँचे। वाणी सर्वभूतहिताय होनी चाहिए। दूसरों की हानि करने वाली वाणी पापमयी होने से दुःखजनक होती है। अत परीक्षा करके सब प्राणियों का हित करने वाली वाणी का ही प्रयोग करना चाहिए। यही बात महर्षि व्यास सत्य के सम्बन्ध में कहते हैं ‘सत्यं यथार्थे वाङ्मनसी। यथादृष्टं यथानुमितं यथाश्रुतं तथा वाङ्मनश्चेति। परत्र स्वबोधसंक्रान्तये वागुक्ता सा यदि न बाधिता भ्रान्ता वा प्रतिपत्तिबन्ध्या वा भवेदिति। एषा सर्वभूतोपकारार्थं प्रवृत्ता न भूतोपघाताय’।
(योगसूत्र-व्यासभाष्य- 2.30)
(ग) अस्तेय- अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। दूसरों की वस्तु पर बिना पूछे अधिकार करना अथवा शास्त्रविरुद्ध ढंग से वस्तुओं का ग्रहण करना स्तेय (चोरी) कहलाता है। दूसरों की वस्तु को प्राप्त करने की मन में लालसा भी चोरी है। अत योगी पुरुष को न तो चोरी करनी चाहिए, न ही किसी से करवानी चाहिए, अपितु अपने सात्विक व पूर्ण पुरुषार्थ से तथा भगवान् की कर्मफल व्यवस्था के अनुरूप या प्रकृति के विधान से जो कुछ हमें प्राप्त होता है उसमें पूर्ण सन्तुष्ट एवं आनन्दित रहना चाहिए।
(घ) ब्रह्मचर्य- कामवासना को उत्तेजित करनेवाले खान-पान, दृश्य-श्रव्य एवं शृंगारादि का परित्याग कर सतत वीर्य-रक्षा करते हुए ऊर्ध्वरेता होना ब्रह्मचर्य कहलाता है। अष्टविध मैथुन-वासना की दृष्टि से किसी का दर्शन, स्पर्शन, एकान्त-सेवन, भाषण, विषय-कथा, परस्पर क्रीड़ा, विषय का ध्यान तथा संग (sex) ये आठ प्रकार के मैथुन हैं। ब्रह्मचारी को इनसे बचते हुए सदा जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त इन्द्रियों आँख, कान, नाक, त्वचा एवं रसना को सदा शुभ की ओर प्रेरित करना चाहिए तथा मन में सदा भद्र, सुविचार, शिव-संकल्प रखना चाहिए।
साधक को सदा ही अपने मन में इस विचार को दृढ़ रखना चाहिए कि मेरी स्वाभाविक अवस्था विकार रहित है। जैसे जल का स्वाभाविक गुण शीतलता एवं द्रवत्व (बहना) है। जमना, गर्म होना, वाष्प बनाना तथा वाष्प बनकर उड़ना ये गुण उसके स्वाभाविक नहीं होते तथा गर्म करने, वाष्प बनने तथा बर्फ बनने पर ठोस हो जाने के बाद भी वह अपनी स्वाभाविक अवस्था में ही वापस लौट आता है, इसी तरह ब्रह्मचर्य हमारी स्वाभाविक अवस्था है। कभी शान्त एकान्त स्थान पर बैठकर चिन्तन करना और अपने भीतर यह देखना, कहीं वासना है क्या? क्या आप में काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार आदि विकार हैं? तो आप पायेंगे कि आपमें ये विकार स्वाभाविक रूप में तो हैं ही नहीं। इन विकारों को तो आमत्रित कर पैदा किया जाता है।
ये विकार चोरों की तरह हमारे शरीर में आते हैं एवं थोड़ी ही देर ठहरते हैं तथा उतनी ही देर में हमारे शरीर, मन एवं आत्मा की शक्ति को लूटकर, विकृत करके, सबकुछ बिगाड़ करके भाग जाते हैं। काम तथा क्रोध थोड़ी देर के लिए आते हैं तथा थोड़ी ही देर में ये विकार हमारे शरीर को हिलाकर रख देते हैं, शरीर को शक्तिहीन एवं ओजहीन तथा निस्तेज कर देते हैं, शरीर में जहर घोल देते हैं। हम बार-बार लुटते हैं और कहते रहते हैं कि इनसे लुटना तो स्वाभाविक है। हम बच नहीं सकते। तो फिर भाई आपको कोई बचा नहीं सकता। उठो, जागो। और अपने स्वाभाविक धर्म (स्वधर्म) को पहचानो। विकार आपके स्वधर्म नहीं, ये परमधर्म हैं और गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय परधर्मो भयावह’। काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार आदि विकारों की भट्ठी में अब अपने-आपको और अधिक नहीं जलाओ।
आप आत्मा हैं, आपके स्वाभाविक गुण हैं मैत्री, करुणा, प्रेम, सहानुभूति, सेवा, समर्पण, परोपकार, आनन्द एवं शान्ति। आप निर्विकार हैं, विकारों को तो हम बुलाते हैं, आमत्रित करते हैं, ऐसे ही जैसे कि कोई धन-सम्पत्ति एवं वैभव को संचित करे और फिर चोरों को आमत्रित कर दे और फिर जब चोर हमारे ही मकान, भूमि एवं भवन में कब्जा करके बैठ जाएँ, सब सम्पत्ति लूट लें और हम ठगे-से खड़े रहकर देखते रहें और कहें कि हाय! यह सब क्या हुआ! मैंने तो इन्हें क्या बुलाया कि ये तो मेरा ही सब कुछ लूट रहे हैं, सब बरबाद कर रहे हैं। लेकिन मनुष्य बाहर की सम्पत्ति को लुटाने के लिए तो चोरों को निमत्रण नहीं देता; क्योंकि यह सम्पत्ति एवं वैभव वह खुद इकट्ठा करता है, उसको वह लुटता हुआ नहीं देख सकता। परन्तु मनुष्य! जरा विचार कर, तेरे भीतर असीम आनन्द, शान्ति, अपार सुख, शक्ति, ओज, तेज, बल, बुद्धि, पराक्रम, मैत्री, करुणा, मुदिता आदि अनन्त ऐश्वर्य हैं, जो तेरे प्रभु ने तुझे दिया है, उसे काम, क्रोध आदि विकार एवं वासना रूपी चोरों को बार-बार बुलाकर बार-बार क्यों लुटाता है और कहता है कि यह तो स्वाभाविक ही है, मैं इसमें क्या करूँ? अब तो सँभलो और अपने-आपको पहचानो, भगवान् की दी हुई शक्ति को पहचानो।
इस सुविचार शिव-संकल्प को अपने भीतर दृढ़ कर लो कि मैं निर्विकार हूँ, ब्रह्मचर्य मेरा स्वधर्म है, ब्रह्मचारी रहना स्वाभाविक है और निश्चित जानो कि विकारों के अस्वाभाविक एवं अल्पकालीन उफान एवं प्रवाह के बाद आपको निर्विकार स्थिति में ही जीवन जीना होता है। अत अब अपने-आपको विकारों की अग्नि में और अधिक न जलाओ। भगवान् की दी हुई दिव्य शक्तियों से सम्पन्न होकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए असीम शान्ति एवं अपरिमित आनन्द और अपार-अथाह सुख को अपने भीतर से प्राप्त करो। ब्रह्मचर्य का पालन करके ओजस्वी, तेजस्वी, बुद्धिमान्, बलवान् एवं पराक्रमी बनकर सबसे दिव्य प्रेम करते हुए सेवा, परोपकार एवं करुणा आदि से अपने जीवन को सुन्दर बनाओ। योग-साधना के पथ पर चलो, तभी अपने-आपको तथा अपने ही भीतर विराजमान सच्चिदानन्द-स्वरूप प्रभु को जान तथा पहचान पाओगे। यही जीवन का सत्य है। यही जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य है।
(ङ) अपरिग्रह- परिग्रह का अर्थ है चारों ओर से संग्रह (इकट्ठा) करने का प्रयत्न करना। इसके विपरीत जीवन जीने के लिए न्यूनतम, धन, वस्त्र आदि पदार्थों एवं मकान से सन्तुष्ट होकर जीवन के मुख्य लक्ष्य ईश्वर-आराधना करना अपरिग्रह है। साधक एवं प्रत्येक विवेकशील मनुष्य को इस विचार के साथ जीवन को जीना चाहिए कि क्या इसके बिना भी मेरे जीवन का निर्वाह हो सकता है यही योगवृत्ति है यही अपरिग्रह है इसके विपरीत भोगवृत्ति या उपभोक्तावाद है। ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार जीवन में जो कुछ भी धन, वैभव, भूमि, भवन आदि ऐश्वर्य हमें प्राप्त हों, उनको कभी अहंकार के वशीभूत होकर अपना नहीं मानना चाहिए तथा भौतिक सुख तथा बाह्य सुख के साधनों की इच्छा भी साधक को नहीं करनी चाहिए अनासक्त भाव से जीवन जीते हुए अपने-आप जो भी सुख-साधन उपलब्ध हों, उनका उपयोग दूसरों को सुख पहुँचाने व सेवा के लिए करना चाहिए। महर्षि व्यास कहते हैः
विषयाणामर्जनरक्षणक्षयसंगहिंसादोषदर्शनादस्वीकरणमपरिग्रह।
(योगसूत्र-व्यासभाष्य- 2.30)
विषय-रूप धनादि भोग्य पदार्थों के अर्जन (संग्रह) करने में दोष, रक्षण-अर्थात् संग्रह किये हुए पदार्थों की रक्षा में दोष, क्षय-संगृहीत किये हुए पदार्थों के नाश होने में दोष, संग-उन संग्रहीत ऐश्वर्यों में आसक्त होने में दोष और हिंसा- अर्थात् ‘नानुपहत्यभूतान्युपभोग सम्भवति’ (योगसूत्र-व्यासभाष्य- 2.15) प्राणियों को बिना पीड़ा दिये सुख का उपभोग सम्भव नहीं है। इसलिए लौकिक सुख-भोग में हिंसाकृत दोष भी है। अत योगी पुरुष को विषयों के प्रति अनासक्त रहकर अपरिग्रह का पालन करना चाहिए। इन सभी यमों (अहिंसा एवं सत्यादि) का पालन मनसा, वाचा, कर्मणा मन, वचन तथा कर्म (आचरण) से करना चाहिए तथा इसमें किसी तरह की कोई सीमा नहीं है। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्। (योगसूत्र- 2.31)
अर्थात् जाति, देश, काल तथा समय से अनवच्छिन्न-अप्रतिबद्ध, अर्थात् इनकी सीमाओं के बन्धन से ऊपर इन अहिंसादि का चित्त की सभी अवस्थाओं में पालन किया जाता है तो ये अहिंसादि महाव्रत कहलाते हैं। इन व्रतों के पालन करने में सामान्य व्यक्ति की दृष्टि से देखा जाये तो बड़ी कठिनाई आती है। इसलिए व्यक्ति कुछ सीमाएँ निर्धारित कर लेता है और इन अहिंसा, सत्य एवं अस्तेय आदि को जाति अर्थात् वर्ग-विशेष, देश-विशेष, काल-विशेष तथा समय-विशेष की सीमाओं में बाँध लेता है। उदाहरण के लिए, हम अहिंसा को ही लेते हैं; जैसे-एक व्यक्ति मछुआरा है, वह मछली मारकर बेचता एवं खाता है।
यह उसकी हिंसा हुई, परन्तु वह गाय, भेड़, बकरी आदि को नहीं मारता, यह उसकी अहिंसा हो गई। परन्तु यह अहिंसा पूर्ण अहिंसा नहीं होगी; क्योंकि यह अहिंसा जाति में बँधी हुई है। इसी तरह अहिंसा देश की सीमा में बँधी हुई है, जैसे कि मैं काशी, मथुरा या हरिद्वार आदि तीर्थों में हिंसा नहीं करूँगा, अर्थात् इन तीर्थों से अन्यत्र मैं हिंसा कर सकता हूँ। ऐसा सोचनेवाला देश (स्थान-विशेष) तक ही अहिंसक है, पूरा अहिंसक नहीं है। काल के सम्बन्ध में भी यही बात है, जैसे कि मैं एकादशी, पूर्णमासी, अमावस्या या मंगलवार आदि या किसी पर्व-विशेष के दिन हिंसा नहीं करूँगा। यह काल की सीमा में बँधी हुई अहिंसा हो गई।
इसी प्रकार से समय की सीमाओं के सम्बन्ध में है, जैसे कि मैं सामान्य अवस्था में तो नहीं, परन्तु विशेष अवस्था में जब मुझ पर कोई संकट-विशेष होगा, तब मैं हिंसा करूँगा। यह भी पूर्ण अहिंसा नहीं है। पूर्ण अहिंसा तब होगी जब सब सीमाओं से ऊपर उठकर सर्वथा, सर्वदा, सर्वत्र, सब प्राणियों के प्रति, सब अवस्थाओं में, सब स्थानों पर बिना हेर-फेर के सहज रूप से इनका पालन किया जायेगा।
इसी प्रकार से सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के सम्बन्ध में जानना चाहिए। जैसे सामान्य रूप से मैं किसी ब्राह्मण, गौ आदि की रक्षा के लिए तो झूठ बोलूँगा। यह जातिपरक झूठ हो गया। देश-स्थान-विशेष, अर्थात् हरिद्वार आदि तीर्थों या गुरुकुल, मठ अथवा मन्दिर, गुरुद्वारा, मस्जिद, चर्च आदि में सत्य बोलूँगा। अन्यत्र व्यापार वा न्यायालय आदि राजकार्यों में असत्य भी बोलूँगा। इसी तरह से काल-विशेष अर्थात् एकादशी आदि तथा समय-विशेष प्रसंग या विशेष प्रयोजन के लिए झूठ बोलूँगा, सामान्य अवस्था में नहीं, यह सब पूर्ण सत्य नहीं होगा। इसी प्रकार अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। सब सीमाओं के बन्धन से ऊपर उठकर मन, वचन तथा कर्म से इन यमों का प्रत्येक साधक को पालन करना चाहिए।
2.नियम
योगांगों में दूसरा आधारभूत अंग है नियम। महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
शौचसन्तोषतपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। (योगसूत्र- 2.32)
शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान- ये पाँच नियम हैं।
(क) शौच- शौच कहते हैं शुद्धि को, पवित्रता को। यह शौच, शुचिता या पवित्रता भी दो प्रकार की होती हैः एक बाह्य, दूसरी आभ्यन्तर। महर्षि मनु ने शौच के सम्बन्ध में बहुत ही सुन्दर कहा हैः
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मन सत्येन शुध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।।
(मनुस्मृति 5.109)
साधक को प्रतिदिन जल से शरीर की शुद्धि, सत्याचरण से मन की शुद्धि, विद्या और तप के द्वारा आत्मा की शुद्धि तथा ज्ञान के द्वारा बुद्धि की शुद्धि करनी चाहिए। भगवती गंगा आदि के पवित्र जल से भी शरीर की शुद्धि हो सकती है। मन, बुद्धि एवं आत्मा की शुद्धि के लिए तो ऋषियों द्वारा बताये गये उपायों को करना ही होगा।
(ख) सन्तोष- अपने पास विद्यमान समस्त साधनों से पूर्ण पुरुषार्थ करें। जो कुछ प्रतिफल मिलता है, उससे पूर्ण सन्तुष्ट रहना और अप्राप्त की इच्छा न करना, अर्थात् पूर्ण पुरुषार्थ एवं ईश्वर-कृपा से जो प्राप्त हो, उसका तिरस्कार न करना तथा अप्राप्त की तृष्णा न रखना ही सन्तोष है। महर्षि व्यास कहते हैं-
सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्। कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम्।।
सन्तोष-रूपी अमृत के पान करने से तृप्त हुए शान्तचित्त मनुष्यों को जो आत्मिक और हार्दिक सुख मिलता है, वह धन-वैभव की लालच व व्याकुलता में इधर-उधर भटकने वाले मनुष्यों को कभी नहीं मिल सकता। अन्यत्र भी कहा है –‘सन्तोषमूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्यय’। सुख का मूल आधार सन्तोष है और इसके विपरीत तृष्णा-लालसा दुःखों का मूल है। उपनिषद् में ऋषि कहते हैं- ‘न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य’। धन के द्वारा मनुष्य की कभी तृप्ति नहीं हो सकती। अत साधक को पूर्ण पुरुषार्थ करते हुए उसका जो भी प्रतिफल ईश्वर अपनी न्यायव्यवस्थानुसार प्रदान करते हैं, उसमें पूर्ण सन्तुष्ट रहना चाहिए और यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ईश्वर सदा ही हमारी आवश्यकता और पात्रता से अधिक ही हमें रूप, यौवन, धन, समृद्धि एवं समस्त वैभव प्रदान करते हैं।
(ग) तप- महर्षि व्यासदेव कहते हैं- ‘तपो द्वन्द्वसहनम्’ अर्थात् अपने सद्-उद्देश्य की सिद्धि में जो भी कष्ट, बाधाएँ, प्रतिकूलताएँ आयें, उनको सहजता से स्वीकार करते हुए, निरन्तर, बिना विचलित हुए, अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना तप कहलाता है। महाभारत में आता है कि जब यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न करता है- ‘तपस किं लक्षणम्’ तो महाराज युधिष्ठिर उत्तर देते हैं- ‘तप स्वधर्मवर्तित्वम्’। हे यक्ष! अपने कर्त्तव्य के पालन में जो भी विघ्न-बाधाएँ आयें, उन्हें सहते हुए निरन्तर अपने स्वधर्म का पालन करना ही तप है। ये द्वन्द्व हैं- भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, सत्कार-तिरस्कार, जय-पराजय आदि। इन सब प्रतिकूलताओं में सम रहना तप है, न कि अग्नि के बीच तपना या एक पैर पर खड़े होकर अपने शरीर को अनावश्यक व अवैज्ञानिक रूप से कष्ट देना आदि।
(घ) स्वाध्याय- महर्षि व्यास कहते हैं- ‘प्रणवादिपवित्राणां जपो मोक्षशास्त्राणामध्ययनं वा’। अर्थात् प्रणव-ओंकार का जप करना तथा मोक्ष की ओर ले जाने वाले वेद-उपनिषद्, योगदर्शन, गीता आदि जो सत्यशास्त्र हैं, इनका श्रद्धापूर्वक अध्ययन करना स्वाध्याय है। हम यदि इस स्वाध्याय शब्द पर शाब्दिक दृष्टि से विचार करें तो इसके मुख्यार्थ दो हैं। एक है- ‘सु-अध्ययनं स्वाध्याय’ अर्थात् उत्तम अध्ययन। ऋषि-प्रतिपादित सत्-शास्त्रों का पूर्ण श्रद्धा और आस्था के साथ अध्ययन करना। उत्तम ग्रन्थों के अध्ययन से हमारे विचारों एवं संस्कारों में पवित्रता, दिव्यता तथा दृढ़ता आती है और विचारों की पवित्रता एवं दृढ़ता से ही जीवन में सात्त्विकता आती है। दूसरा स्वाध्याय का अर्थ है- स्व-अध्ययन, अर्थात् अपना अध्ययन, अपने-आपको पढ़ना, अपने अस्तित्व के सम्बन्ध में चिन्तन, विचार तथा निदिध्यासन करना कि मैं कौन हूँ? मुझे क्या करना चाहिए? मैं क्या कर रहा हूँ? मेरे जीवन का क्या लक्ष्य है? मुझे किसने पैदा किया है? और क्यों पैदा किया है?
इस प्रकार साधक सजग होकर विवेकपूर्वक विचार करेगा तो वह बाहर के वैभव में न फँसकर प्रणव (ओंकार) का जप तथा ऋषि-प्रतिपादित अध्यात्मविद्या, पराविद्या के ग्रन्थों का अध्ययन करता हुआ परमेश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर सफल हो सकता है।
(ङ) ईश्वर-प्रणिधान- महर्षि व्यास कहते हैं- ‘तस्मिन् परमगुरौ सर्वक्रियाणामर्पणम्’। अर्थात्, उस गुरुओं के भी गुरु, परम गुरु परमात्मा में अपने समस्त कर्मों का अर्पण कर देना। भगवान् को हम वही समर्पित कर सकते हैं, जो शुभ है, दिव्य एवं पवित्र है। इसलिए साधक पूर्ण श्रद्धा, भक्ति एवं सर्वात्मना प्रयत्न से वही कार्य करेगा, जिसे वह भगवान् को समर्पित कर सके, अर्थात् उसकी समस्त क्रियाओं का ध्येय ईश्वर-अर्पण होगा। सच्चा भक्त सदा यही विचार करता है कि मुझे जीवन में शरीर, मन, बुद्धि, शक्ति, रूप, यौवन, समृद्धि, ऐश्वर्य, पद, सत्ता, मान आदि जो कुछ वैभव मिला है, सब ईश्वर-कृपा से ही मिला है। इसलिए मुझे अपनी समस्त शक्तियों का उपयोग अपने प्रियतम प्रभु को प्रसन्न करने के लिए ही करना है। इस जीवन का सम्पूर्ण प्रयास तथा पुरुषार्थ मेरा यही है कि मैं सब कुछ, अपने अस्तित्व-सहित, प्रभु में अर्पण कर दूँ और ऐसे भक्त पर ही भगवान् की कृपा एवं ईश्वरीय अमृत सदा बरसता है, जो सर्वात्मना ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाता है।
यम-नियमों में बाधाएँ-
इन यम-नियमों का पालन करने में कई प्रकार की विघ्न-बाधाएँ हैं, जो हमें योग से विचलित करती हैं। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्। (योगसूत्र- 2.33)
यम-नियमों के अनुष्ठान में, इनके विपरीत हिंसा, असत्य, चोरी, असंयम, परिग्रह तथा अशुचिता, असन्तोष, विलासिता, स्वाध्याय का अभाव आत्म विमुखता तथा नास्तिकता ईश्वर से विमुखता अधर्म है। इनके प्रतिपक्ष का चिन्तन करके इनसे बचना चाहिए। साधक को एक बार यह दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिए कि मैंने इस दुःखमयी संसाराग्नि के ताप से बचने के लिए जो इन हिंसा, असत्य, चोरी, असंयमादि वितर्कों का परित्याग किया है, इन हिंसादि को मैं भूलकर भी ग्रहण नहीं करूँगा; क्योंकि मैंने विवेकपूर्वक निश्चय करके इन दोषों का परित्याग किया है। अब मुझे श्वानवृत्ति (अर्थात् जैसे कुत्ता उल्टी करने के बाद चाट लेता है, उसी तरह) नहीं होना। मैं दृढ़ निश्चय होकर इन महाव्रतों का श्रद्धापूर्वक पूरी शक्ति के साथ पालन करूँगा, यही मेरे जीवन का स्वधर्म है। ऐसा कहते हुए यदि मुझे मरना भी पड़े तो मुझे ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय’ स्वीकार है।
ये वितर्क क्या हैं? तथा इनसे बचने की प्रतिपक्ष-भावना क्या है? इसके सम्बन्ध में महर्षि पतंजलि कहते हैं-
वितर्का हिंसादय कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका
मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम्। (योगसूत्र- 2.34)
ये हिंसा, असत्य, चोरी सत्य आदि वितर्क (कृत्य- अर्थात् स्वयं किये हुए, कारित-दूसरों के द्वारा कराये गये और अनुमोदित-अनुमोदन (समर्थन) किये गये) लोभ, क्रोध और अज्ञान के कारण उत्पन्न होने वाले हैं। ये मृदु, मध्य और तीव्र भेदवाले तथा अनन्त-असीम दुःख और अज्ञान रूप फल देनेवाले हैं। यह विचार ही प्रतिपक्ष भावना या चिन्तन है। इन हिंसा एवं असत्यादि वितर्कों (बाधाओं) में से हम उदाहरणार्थ हिंसा को लेते हैं।
हिंसा के प्रकार, जिनसे साधकों को बचना चाहिए
यह हिंसा तीन प्रकार की होती है। प्रथम कृत- स्वयं अपने मन, वचन तथा कर्म से किसी की हिंसा करना; द्वितीय कारित- स्वयं प्रत्यक्ष रूप से तो किसी की हिंसा नहीं करना, परन्तु दूसरों से करवाना, तथा तृतीय अनुमोदित- हिंसा के लिए दूसरों को प्रेरित करना या दूसरों द्वारा की गई हिंसा का अनुमोदन करना। तीन प्रकार की हिंसाओं के लोभ, क्रोध और मोहपूर्वक होने से पुन तीन-तीन भेद हैं। मांस, चमड़ा, भूमि, भवन तथा अन्य किसी लोभ के लिए कृत, कारित तथा अनुमोदित लोभजन्य हिंसा है। इसी प्रकार क्रोधजन्य हिंसा (कृत, कारित तथा अनुमोदित तीनों प्रकार की) इसलिए करना कि इस हिंसित होनेवाले प्राणी ने मेरा कोई अनिष्ट किया है। मोह के कारण कृत, कारित तथा अनुमोदित हिंसा इसलिए की जाती है कि मेरी स्त्राr, पुत्र अथवा किसी प्रियजन का स्वार्थ सिद्ध होने से मेरा स्वार्थ सिद्ध हो जायेगा।
लोभ, क्रोध एवं मोहपूर्वक की गई हिंसा के पुन प्रत्येक के तीन-तीन भेद किये गये हैं-मृदु, मध्य एवं अधिमात्र। लोभ, क्रोध, मोह की मात्रा कम होने से मृदु हिंसा (हिंसा कम मात्रा में), इनकी मात्रा मध्य स्तर एवं अधिक स्तर होने से हिंसा भी मध्यस्तर एवं अधिमात्र स्तर की होती है। इन मृदु, मध्य, अधिमात्र की हिंसा में भी प्रत्येक के पुन तीन-तीन भेद किये गये हैं। यथा मृदु स्तर की हिंसा के तीन भेद हैं- (1) मृदु-मृदु- मृदुस्तर की हिंसा में सबसे कम हिंसा का होना; (2) मध्य मृदु- मृदु हिंसा से कुछ अधिक हिंसा होना; (3) तीव्र मृदु- मृदु स्तर की ही सीमा में सबसे अधिक हिंसा का होना। इसी तरह से ‘मध्यस्तर’ एवं ‘अधिमात्रस्तर’ हिंसा के भी तीन-तीन भेद होते हैं। इस प्रकार हिंसा 81 प्रकार की होती है। यह 81 भेदों वाली हिंसा नियम, विकल्प और समुच्चय-भेद से असंख्य भेदों वाली हो जाती है।
इसी प्रकार हिंसा की तरह ही असत्य आदि अन्य वितर्कों के भी 81-81 प्रकार समझने चाहिए। असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रह भी स्वयं करना, दूसरों से करवाना तथा कोई अन्य कर रहा हो तो उसका अनुमोदन करना भी साधक के लिए बाधक है। स्वयं झूठ न बोलकर दूसरों से बुलवाना तथा झूठे व्यक्तियों का अनुमोदन करना भी असत्य ही है। इसी प्रकार चोरी करना, दूसरों से करवाना तथा अनुमोदन करना सब चोरी के अन्तर्गत ही है। स्वयं तो ब्रह्मचर्य का पालन न करना, परन्तु दूसरों को ब्रह्मचर्य-पालन करवाना तथा ब्रह्मचर्य के लिए प्रेरित करना भी पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं हो सकता। इसी प्रकार अपरिग्रह के विषय में जानना चाहिए।
कृत-कारित-अनुमोदित की तरह ही असत्य-चोरी आदि के अन्य लोभ-क्रोध-मोहपूर्वक आदि भेद हिंसा की तरह ही समझने चाहिए और साधक को अपने मन में यह दृढ़ संकल्प धारण करना चाहिए कि ये वितर्क निश्चय ही दुःख-रूप तथा अज्ञान-रूप अनन्त अशुभ फलों के देने वाले हैं। इस प्रकार प्रतिपक्ष-वितर्क एवं विरोधी भावना बनाकर हिंसा, असत्य आदि से बचकर निरन्तर योगानुष्ठान करते हुए आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ना चाहिए।
यम-नियमों के अनुष्ठान का फल
(क) अहिंसा के अनुष्ठान का फल-
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग। (योगसूत्र- 2.35)
साधक में अहिंसा की प्रतिष्ठा होने पर जो प्राणी उस योगी पुरुष के संग में रहते हैं, उनका भी हिंसा-वैरभाव छूट जाता है। जब योगी पुरुष पूर्ण रूप से अहिंसा का मनसा-वाचा-कर्मणा पालन करता है, जब योगी पुरुष सब प्राणियों के प्रति हृदय से सहज, निश्छल, निस्वार्थ स्नेह-प्रेम करता है, तब यह कैसे सम्भव है कि उसके प्रति कोई भी वैर भाव रखे। योगी पुरुष के सान्निध्य से केवल मनुष्यों का ही वैरभाव नहीं छूटता- सर्प, सिंह, व्याघ्रादि हिंसक जीव भी हिंसा छोड़ देते हैं।
(ख) सत्याचरण का फल-
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्। (योगसूत्र- 2. 36)
सत्य के पूर्ण पालन का फल है कि पूर्ण सत्याचरण करनेवाला योगी पुरुष जो कह देता है, वही हो जाता है। जो सत्य ही मानता, बोलता और वैसा ही आचरण भी करता है, उसकी वाणी अमोघ हो जाती है। इसलिए आज तक जितने भी महापुरुष, योगिराज हुए, उनके जीवन में हम देखते हैं कि उन्होंने जो कुछ भी कहा, वही हुआ है। परन्तु यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि योगी पुरुष कभी असम्भव, अयुक्त तथा हानिकारक वाणी का प्रयोग नहीं करते। योगी पुरुष सदा सत्य एवं शुभ ही उच्चारण करते हैं। इसलिए योगीजनों का एक शब्द ही जीवन को रूपान्तरित कर देता है, जीवन के प्रवाह को शुभ की ओर बदल देता है। बहुत बड़ी शक्ति होती है, सत्यवादी महापुरुषों में।
(ग) अस्तेय के पालन का फल-
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्। (योगसूत्र- 2.37)
पूर्णरूप से चोरी का त्याग कर देने पर साधक को चारों ओर से रत्नों की प्राप्ति होने लगती है। यह नितान्त सत्य भी है कि योगी पुरुष, चोरी की बातें तो बहुत दूर की है, किसी पदार्थ की इच्छा ही नहीं करते कि यह मेरे पास होनी चाहिए। योगी पुरुष को जीवन-निर्वाह के लिए जो कुछ चाहिए, उसे भगवान् स्वत प्रदान करते हैं।
यह दुनिया का नियम है कि जो यहाँ माया को बहुत अधिक चाहता है, माया उतना ही आगे-आगे भागती है तथा जो माया का त्याग करते हैं, माया उन्हीं के पीछे दौड़ती है। योगी महापुरुषों की भी यही स्थिति होती है। वे पूर्ण निर्लोभ निस्पृह ही होते हैं, इसलिए दुनिया के वैभवशाली पुरुष उनको सब प्रकार के ऐश्वर्य रत्न-आभूषण दिलाते हैं एवं उनके चरणों में अर्पित कर देते हैं और वे योगी पुरुष भी पुन उन रत्नादि ऐश्वर्यों को समस्त मानवता के हित में अर्पित कर देते हैं।
(घ) ब्रह्मचर्य के पालन का फल-
ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ। (योगसूत्र- 2.38)
ब्रह्मचर्य के पूर्णरूप से पालन करने से योगी पुरुष का ओज, तेज, कान्ति, वीर्य, बल तथा पराक्रम बढ़ जाता है। बिना ब्रह्मचर्य-पालन के कोई भी पुरुष योगी नहीं हो सकता।
(ङ) अपरिग्रह के अनुष्ठान का फल-
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोध। (योगसूत्र-2.39)
अपरिग्रह का फल है कि मनुष्य विषयासक्ति से रहित होकर सदा जितेन्द्रिय रहता है। तब मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और मुझे क्या करना चाहिए? इत्यादि शुभगुणों का विचार कर योगी भौतिक पदार्थों का संग्रह नहीं करता है, किन्तु जिस आत्मबोध के होने से जन्म-मरण के बन्धन से छुटकारा मिलता है, वह उस स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
(च) शौच के अनुष्ठान का फल
शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः। (योगसूत्र- 2.40)
शरीर की बार-बार जलादि से शुद्धि करता हुआ साधक जब यह अनुभव करता है कि इस शरीर को मैं इतना शुद्ध करने का प्रयत्न करता हूँ, फिर भी यह शरीर और अधिक मलिन ही होता रहता है, इसमें चारों ओर से दुर्गन्ध ही निकलता रहता है तो साधक को स्वाङ्ग-जुगुप्सा-अपने शरीर के अङ्गों से ग्लानि, घृणा होने लगती है तथा दूसरों के शरीर को भी वह जब देखता है, तब उसको सबके शरीर मलमूत्र आदि से भरे हुए दिखते हैं और वह दूसरे स्त्री-पुरुष आदि से अपने शरीर के स्पर्श की इच्छा नहीं करता। आलिंगन आदि से भी उसे अनासक्ति होने लगती है। योगी शरीर का उपयोग साधन की तरह करता है साध्य तो आत्मा की पूर्णता ही है। महर्षि व्यास भी कहते हैं-
स्थानाद् बीजादुपष्टम्भान्निस्स्यन्दान्निधनादपि। कायमाधेयशौचत्वात् पण्डिता ह्यशुचिं विदुः।।
(योगसूत्र-व्यासभाष्य- 2.5)
अर्थात्, यह भौतिक शरीर पवित्र नहीं है; क्योंकि यह शरीर मल-मूत्रमय योनि से पैदा होता है। रजवीर्यादि रूप से निर्मित होने से, मल-मूत्र स्थान एवं रोमकूप और मुखादि से भी निरन्तर दुर्गन्ध निकलने तथा मरणोपरान्त शव के भी अति दुर्गन्धमय होने से यह शरीर पवित्र नहीं है, अपितु मल का भण्डार है। इस शरीर की बार-बार जलादि से शुद्धि करने पर भी यह सदा मलिन ही रहता है। इस प्रकार विचार करके साधक की शरीर से आसक्ति हट जाती है। वह शरीर से मोह नहीं करता है। वह प्रेम भी शरीर से नहीं, आत्मा से करता है। यह तो बाह्य शौच (शुद्धि) का फल है। आभ्यन्तरिक शुद्धि का फल महर्षि पतंजलि बताते हैं-
सत्त्वशुद्धिसौमनस्येकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च। (योगसूत्र- 2.41)
सत्य, अहिंसा, विद्या, तप आदि आभ्यन्तरिक शौच से अन्तकरण की शुद्धि, मन की प्रसन्नता और एकाग्रता, इन्द्रियों पर विजय तथा आत्मा को जानने की योग्यता प्राप्त होती है।
(छ) सन्तोष के अनुष्ठान का फल-
सन्तोषादनुत्तम सुखलाभ। (योगसूत्र- 2.42)
सन्तोष से जो सुख होता है, वह सबसे उत्तम सुख है। सन्तोष-सुख को ही मोक्षसुख भी कहते हैं। महर्षि व्यास देव भी कहते हैं-
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हत षोडशीं कलाम्।।
(योगसूत्र-व्यासभाष्य- 2.42)
संसार में कामरूप तथा दिव्य स्वर्ग की कल्पनायुक्त जो स्वर्गीय महान् सुख हैं, ये दोनों ही प्रकार के भौतिक सुख तृष्णा के नाश होने पर प्राप्त होने वाले सुख के सोलहवें अंश के भी समान नहीं हो सकते। अत सन्तोष-सुख से बढ़कर दुनिया में और कोई सुख नहीं।
तृष्णा ही हमें पग-पग पर सताती है। भर्तृहरि कहते हैं- तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः। (वैराग्यशतक- 7) अर्थात् तृष्णा की पूर्ति करने वाले बूढ़े हो जाते हैं, परन्तु तृष्णा कभी बूढ़ी नहीं होती।
(ज) तप के अनुष्ठान का फल-
कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपस। (योगसूत्र- 2.43)
तप के अनुष्ठान से अशुद्धि के क्षीण होने से, साधक का शरीर तथा इन्द्रियाँ सदा दृढ़ एवं नीरोग रहती हैं। महर्षि दयानन्द जी महाराज तप के सम्बन्ध में कहते हैं-
‘यथार्थ शुद्धभाव, सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य करना, मन को अधर्म में न जाने देना, शरीर, इन्द्रिय और मन से शुभकर्मों का आचरण करना, वेदादि विद्याओं का पढ़ना-पढ़ाना, वेदानुसार आचरण करना आदि उत्तम धर्मयुक्त कर्मों का नाम तप है। धातु को तपा के चमड़ी जलाना तप नहीं कहलाता’।
(झ) स्वाध्याय के अनुष्ठान का फल-
स्वाध्यायादिष्टदेवतासप्रयोग। (योगसूत्र- 2.44)
स्वाध्याय का अनुष्ठान करने वाले योगी को विद्वान्, देव, मत्रद्रष्टा ऋषि और सिद्ध पुरुष दिखाई दे जाते हैं और साधक की साधना में सहायक हो जाते हैं। जब साधक प्रणव-ओंकार का जप तथा मोक्षशास्त्राsं का निरन्तर अध्ययन करता है, तब उसको जब-जब योग-साधना करते हुए कठिनाई या बाधा आती है, तब सिद्ध-सन्त पुरुष प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उसका मार्गदर्शन करते हैं। ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार साधक को मार्गदर्शक सिद्ध गुरु मिल ही जाते हैं।
(ञ) ईश्वर-प्रणिधान का फल –
समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्। (योगसूत्र-2.45)
ईश्वर-प्रणिधान, अर्थात् अपनी समस्त क्रियाओं को परमगुरु परमेश्वर के प्रति समर्पित कर उन कार्यों के फल की इच्छा का परित्याग कर देने से (ईश्वरप्रणिधानं सर्वक्रियाणां परमगुरावर्पणं तत्फलसंन्यासो वा। (योगसूत्र-व्यासभाष्य-2.1) साधक को समाधि की सिद्धि (प्राप्ति) सुगमता से हो जाती है।
यम-नियमों तथा उनका अनुष्ठान करने पर प्राप्त होनेवाली सिद्धियों (फलों) का वर्णन करने के बाद योग के अंगों में तृतीय अंग आसन का वर्णन करते हैं।
- आसन
स्थिरसुखमासनम्। (योगसूत्र-2.46)
पद्मासन, भद्रासन, सिद्धासन या सुखासन आदि किसी भी आसन में स्थिरता और सुखपूर्वक बैठना आसन कहलाता है। साधक को जप, उपासना एवं ध्यान आदि करने के लिए किसी भी आसन में स्थिरता और सुखपूर्वक बैठने का लम्बा अभ्यास भी करना चाहिए। जो इन आसनों में नहीं बैठ सकते या रोगी हैं, उनके लिए महर्षि व्यास कहते हैं कि वे सोपाश्रय आसन, अर्थात् कुर्सी अथवा दीवार आदि का भी आश्रय (सहारा) लेकर प्राणायाम-ध्यान आदि का अभ्यास कर सकते हैं। जप एवं ध्यानादि-रूप उपासना के लिए आसन का अभ्यास अति आवश्यक है। किसी ध्यानात्मक आसन के करते समय मेरुदण्ड सदा सीधा होना चाहिए। भूमि समतल हो, बिछाने के लिए गद्दीदार वस्त्र, कुशा या कम्बल आदि ऐसा आसन होना चाहिए जो विद्युत का कुचालक तथा आरामदायक हो। उपासना के लिए एकान्त स्थान, शुद्ध वायु, मक्खी-मच्छर आदि से रहित वातावरण उपयुक्त है।
आज समाज में कुछ ऐसी भ्रान्तियाँ फैलती जा रही हैं कि कुछ लोग मात्र योग के कुछ आसनों को करके अपने-आप को योगी कहने लगते हैं और कुछ लोग उनको योगी भी समझने लगते हैं। योगासन तो योग का एक अंगमात्र है। योगी होने के लिए तो अहिंसा, सत्य, अस्तेय व ब्रह्मचर्यादि रूप यम-नियमों सहित अष्टांग योग का पूर्ण पालन करते हुए दीर्घकाल तक श्रद्धापूर्वक समाधि का अभ्यास करना पड़ता है।
हठयोग में अनेक प्रकार के आसन बताये गये हैं। ध्यानात्मक आसनों के अतिरिक्त हठयोग में दूसरे ऐसे आसन वर्णित हैं, जिनका सम्बन्ध शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य से है। इन आसनों को करने से शरीर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग को पूरी क्रियाशीलता मिलती है एवं वे सक्रिय, स्वस्थ और लचीले बन जाते हैं। प्रकरण 5 से 10 तक विभिन्न रोगों में उपयोगी आसनों का सचित्र वर्णन किया गया है। पाठकगण वहीं देखें।
- प्राणायाम
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद प्राणायाम। (योगसूत्र-2.49)
आसन के स्थिर हो जाने पर श्वास लेने व श्वास को छोड़ने की स्वाभाविक गति का विच्छिन्न होना प्राणायाम कहलाता है।
बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभि परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्म। (योगसूत्र-2.50)
बाह्यवृत्ति, आभ्यन्तरवृत्ति, स्तम्भवृत्ति- इन भेदों वाला प्राणायाम, देश, काल एवं संख्या के द्वारा नापा गया दीर्घ और सूक्ष्म होता जाता है।
बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः। (योगसूत्र-2.51)
चौथा प्राणायाम बाह्य और आभ्यन्तर विषयक प्राण के आक्षेप अर्थात् आलोचन स्वरूप वाला होता है।
तत क्षीयते प्रकाशावरणम्। धारणासु च योग्यता मनस। (योगसूत्र-2.52-53)
प्राणायाम के नियमित अभ्यास से प्रकाशावरण कमजोर पड़ने लगता है तथा धारणाओं का अनुष्ठान कर सकने की मानसिक-सक्षमता की प्राप्ति भी होती है।
किसी भी एक ध्यानात्मक आसन में बैठकर श्वास प्रश्वासों पर नियत्रण करके प्राणशक्ति के द्वारा शरीर, इन्द्रियों व मन का शुद्धिकरण व दिव्य रूपान्तरण यह प्राणायाम है। महर्षि पतंजलि ने बाह्य, आभ्यन्तर, स्तम्भवृत्ति तथा बाह्याभ्यन्तरविषयक्षेपी- इन चार प्राणायामों का प्रमुखता से वर्णन किया है।
भस्रिका, कपालभाति, अनुलोम-विलोम व भ्रामरी आदि प्राणायाम की पूरी विधियां एवं उनसे होने वाले वैज्ञानिक व अत्यन्त प्रभावशाली लाभों के सन्दर्भ में पूरी जानकारी हेतु आप पतञ्जलि योगपीठ द्वारा ही प्रकाशित हमारी पुस्तक ‘प्राणायाम रहस्य’ एक बार अवश्य पढ़ें। प्रस्तुत पुस्तक में प्राणायाम का संक्षिप्त परिचय मात्र लिखा है।
- प्रत्याहार
स्वविषयासप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार। (योगसूत्र-2.54)
इन्द्रियों के अपने-अपने विषय रूप-रसादि का सन्निकर्ष न होने पर चित्तवृत्ति के अनुरूप ही इन्द्रियाँ हो जाती हैं, इसलिए जब साधक विवेक-वैराग्य आदि से अपने मन के ऊपर नियत्रण कर लेता है, तब इन्द्रियों का जीतना अपने-आप हो जाता है, क्योंकि मन ही इन्द्रियों को चलानेवाला है। यह मनोजय अथवा विषयों से विमुख होकर मन तथा इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करना ही प्रत्याहार है। आङ्पूर्वक ‘हृ’ धातु आहरण-आकृष्ट करने के अर्थ में प्रयुक्त होती है। प्रति उपसर्ग से उसके विपरीत अर्थ (विमुख होने) को द्योतित किया गया है। इस प्रत्याहार का फल बताते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं-
तत परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्। (योगसूत्र-2.55)
प्रत्याहार के द्वारा साधक का इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार हो जाता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धादि की आसक्ति व्यक्ति को आत्मकल्याण के रास्ते से दूर हटाती है। एक-एक इन्द्रिय की आसक्ति मन को विचलित कर देती है। इन्द्रियों के विषयों (रूप-रसादि) में आसक्ति रखनेवाले व्यक्ति की प्रीति भोगों में होती है, भगवान् में नहीं। इसलिए अभ्यास और वैराग्य के द्वारा यथार्थ बोध से ही प्रत्याहार सिद्ध होने पर यह इन्द्रिय-जय होता है। फिर साधक को भगवान् में प्रीति, परम रस और परम सुख का अनुभव होने लगता है और सारा संसार दुःखमय प्रतीत होता है-
परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिन। (योगसूत्र-2.15)
कर्माशय (संचित कर्मों का समूह) का विपाक (फल) ही जन्म, आयु और भोग होता है। ये जन्म, आयु तथा भोग पुण्य कर्मों के कारण सुखमय तथा अपुण्य कर्मों के कारण दुःखमय होते हैं। परन्तु योगी के लिए लौकिक विषयों का सुख भी दुःखमय ही होता है। इसका कारण यह है कि यह शब्द, स्पर्श, रूप, रस आदि वासनारूप विषय-सुख, व्यक्ति को अविद्यावश ही प्रतीत होता है। जब इन सुखों के परिणाम आदि पर विचार किया जाये, तब निश्चित रूप से हम पायेंगे कि ये समस्त सांसारिक सुख भी दुःखमय ही होते हैं, क्योंकि ये सुख प्राणियों को पीड़ा दिये बिना नहीं भोगे जा सकते तथा इन सुखों में भी सूक्ष्म परिणाम-सन्ताप एवं संस्कार-रूप से जो दुःख मिश्रित हैं, उन्हें सामान्यजन अनुभव नहीं कर पाते। किन्तु योगी उनके परिणामों को जान लेता है। अत उसके लिए लोगों को सुख प्रतीत होने वाला लौकिक सुख भी दुःखमय ही है। इसलिए साधक दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति के लिए ईश्वर-प्राप्ति हेतु पूर्ण पुरुषार्थ करता है।
यह यम से प्रत्याहार पर्यन्त बहिरंग योग है। इसके बाद यहाँ हम धारणा, ध्यान तथा समाधि-रूप अन्तरंग योग का संक्षेप में वर्णन करेंगे।
- धारणा
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। (योगसूत्र- 3.1)
नाभिचक्र, हृदय-पुण्डरीक, मूर्धाज्योति, भ्रूमध्य, ब्रह्मरन्ध्dरा, नासिकाग्र, जिह्वाग्र इत्यादि प्रदेशों में से किसी एक स्थान पर मन का निग्रह या एकाग्र होना धारणा कहलाता है। प्रत्याहार द्वारा जब इन्द्रियाँ एवं मन एक प्रकार से स्थूल विषय से हटाकर सूक्ष्म लक्ष्य आत्मा-परमात्मा आदि पर केन्द्रित करने को धारणा कहते हैं। धारणा ध्यान की नींव है। ज्यों-ज्यों धारणा का अभ्यास सुदृढ़ होगा, ध्यान भी साथ-साथ होने लगेगा।
- ध्यान
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। (योगसूत्र- 3.2)
उस धारणा किये हुए, अर्थात् नाभिचक्र, भ्रूमध्य या हृदय आदि में ध्येय रूप परमेश्वर में प्रत्यय एकतानता-ज्ञान का सदृशप्रवाह (एक-सा प्रवाह) ध्यान है। जैसे नदी जब समुद्र में प्रवेश करती है, तब वह समुद्र के साथ एकाकार हो जाती है, सदृश-प्रवाह हो जाती है। वैसे ही ध्यान के समय सच्चिदानन्द परमेश्वर के अतिरिक्त अन्य विषय का स्मरण नहीं करना, अपितु उसी अन्तर्यामी ब्रह्म के आनन्दमय, ज्योतिर्मय एवं शान्तिमय स्वरूप में मग्न हो जाना ध्यान है।
ध्यान हमारे जीवन के साथ प्रतिपल जुड़ा हुआ है। भारतीय संस्कृति में तो ध्यान प्रत्येक क्रिया का पूरक होता था। इसीलिए आज भी हमें अपने घर एवं परिवार के बड़े व्यक्ति किसी कार्य को विधिवत् सम्पन्न करने हेतु जब कहते हैं, तब सर्वत्र यही वाक्य होता है- भाई ध्यान से पढ़ना, ध्यान से चलना, प्रत्येक कार्य को ध्यान से करना। आज हम ध्यान शब्द का प्रयोग तो करते हैं, परन्तु यह ध्यान क्या है, उस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। लेकिन जीवन के प्रत्येक कार्य के साथ जुड़े इस ध्यान शब्द से हम यह तो जान ही सकते हैं कि ध्यान जीवन का अपरिहार्य अंग है। ध्यान के बिना जीवन अधूरा है। ध्यान के बिना हम अपने किसी भी भौतिक तथा आध्यात्मिक लक्ष्य में सफल नहीं हो सकते। ध्यान से ही हम सदा आनन्दमय एवं शान्तिमय जीवन जी सकते हैं। यद्यपि ध्यान अपने-आपमें एक बहुत बड़ी यौगिक प्रक्रिया है, तथापि ध्यान की कुछ विधियों पर हम संक्षेप में प्रकाश डालेंगे, जिससे साधकों को कुछ दिशा-निर्देश मिल सके।
ध्यान के लिए कुछ दिशा-निर्देश
ध्यान करने से पहले प्राणायाम अवश्य करें; क्योंकि प्राणायाम के द्वारा मन पूर्ण शान्त एवं एकाग्र हो जाता है। शान्त मन के द्वारा ही धारणा और ध्यान हो सकते हैं।
कपालभाति और अनुलोम-विलोम प्राणायाम विधिपूर्वक करने से मन निर्विषय हो जाता है, अत ध्यान स्वत लगने लगता है। साधक जब कम से कम 10-15 मिनट कपालभाति और 5 और 10 मिनट अनुलोम-विलोम-प्राणायाम करता है, तब उसके मूलाधार चक्र में सन्निहित ब्रह्म की दिव्यशक्ति जागरित होकर ऊर्ध्वगामी होने लगती है, जिससे समस्त चक्रों और नाड़ियों का शोधन हो जाता है। आज्ञाचक्र में, एक दिव्य ज्योतिपुंज में, सच्चिदानन्द-स्वरूप ओंकार में मन अवस्थित होने लगता है। अत्यन्त चंचल मन भी प्राणायाम के द्वारा एकाग्र हो जाता है।
ध्यान करते समय ध्यान को ही सर्वोपरि महत्त्व दें। ध्यान के समय किसी भी अन्य विचार को, चाहे वह कितना ही शुभ क्यों न हो, महत्त्व न दें। दान करना, सेवा एवं परोपकार करना, विद्याध्ययन, गुरु, राष्ट्र एवं विश्व की सेवा तथा गोसेवा आदि पवित्र कार्य हैं, परन्तु इनका भी ध्यान के समय ध्यान या चिन्तन न करें। ध्यान के समय चिन्तन, मनन, निदिध्यासन एवं साक्षात्कार का लक्ष्य ईश्वर ही होना चाहिए।
ध्यान के समय मन एवं इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनायें तथा ध्यान से पहले प्रतिदिन मन में यह चिन्तन भी अवश्य करें कि मैं प्रकृति, धन, ऐश्वर्य, भूमि, भवन, पुत्र, पौत्र, भार्या आदि रूप नहीं हूँ। ये सब व्यक्त-अव्यक्त सत्त्व मेरे स्वरूप नहीं हैं। मैं समस्त जड़ एवं चेतन बाह्य पदार्थों के बन्धन से परे हूँ। यह शरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं शरीर, इन्द्रियाँ तथा इन्द्रियों के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि) से रहित हूँ। मैं मन तथा मन के विषय, काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार आदि वासना-रूप नहीं हूँ। मैं अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश-रूप पंचक्लेशों से भी रहित हूँ। मैं आनन्दमय, ज्योतिर्मय, प्रकाशमय, शान्तिमय, परम सुखमय, त्रिगुणातीत, भावातीत, शुद्धसत्त्व हूँ। मैं अमृतपुत्र हूँ। मैं उसी ब्राह्मी चेतना में अवस्थित हूँ। जैसे बूँद समुद्र से आकाश की ओर उठती है, फिर भूमि पर गिरकर नदियों के प्रवाह से होकर पुन सागर में ही समाहित हो जाती है, सागर को छोड़कर बूँद रह नहीं सकती है, मैं भी उस आनन्द के सिन्धु परमेश्वर में बूँद से समुद्र-रूप होना चाहता हूँ। वही विधाता हमें जीवन, प्राण, शक्ति, गति, ओज, शान्ति, सुख एवं समस्त भौतिक ऐश्वर्य प्रदान करता है। वही प्रभु मुझे सतत आनन्द दे रहा है, प्रभु की शान्ति एवं परम सुख मुझपर सब ओर से बरस रहा है। एक पल भी वह आनन्दमयी माँ एवं परम रक्षक पिता मुझे अपने से दूर नहीं करता। मैं सदा प्रभु में हूँ और प्रभु सदा मुझमें हैं, यह तादात्म्य-भाव, तद्रूपता एवं तदाकार भाव ही हमें परम आनन्द प्रदान करेगा। भगवान् अपने आनन्द की अजस्र वृष्टि कर रहे हैं। यदि हम फिर भी उस आनन्द को अनुभव न करें तो इसमें हमारा ही दोष है।
साधक को सदा विवेक-वैराग्य के भाव में रहना चाहिए। स्वयं को द्रष्टा-साक्षीभाव में अवस्थित रखकर अनासक्त भाव से समस्त शुभ कार्यों को भगवान् की सेवा मानकर करना चाहिए। कर्त्तृत्व का अहंकार व फल की अपेक्षा से रहित कर्म भगवान् का क्रियात्मक ध्यान है।
बाह्य सुखप्राप्ति का विचार एवं सुख के समस्त साधन सब दुःख-रूप हैं। संसार में जब तक सुख-बुद्धि बनी रहेगी, तब तक भगवत्समर्पण, ईश्वर-प्रणिधान नहीं हो सकेगा तथा बिना ईश्वर-प्रणिधान के ध्यान एवं समाधि तक पहुँचना असम्भव है।
तस्य वाचक प्रणव। (योगसूत्र-1.27)
तज्जपस्तदर्थभावनम्। (योगसूत्र-1.28)
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म। (गीता- 8.13)
ओं खं ब्रह्म। (शुक्लयजुर्वेद -40.17)
एतदालम्बनं परम्। (कठोपनिषद्-2.17)
ध्यान के लिए अर्थपूर्वक ओंकार-जप का अवलम्बन सर्वोत्तम है। भगवान् ने भ्रुवों, आँख, नाक, ओष्ठ, कान, हृदय, छाती आदि समस्त अंगों की आकृति ओंकारमयी बनाई है।
यह पिण्ड (देह) तथा समस्त ब्रह्माण्ड ओंकारमय है। इस प्रकार साधक ओंकार का जप करता हुआ सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी, सच्चिदानन्द ब्रह्म परमेश्वर को ही सर्वत्र अनुभव करता हुआ उसके दिव्य स्वरूप में समाहित हेने लगता है। ओंकार कोई व्यक्ति या आकृति-विशेष नहीं, अपितु एक दिव्य शक्ति है, जो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का संचालन कर रही है। जैसे इस पिण्ड शरीर में आत्मा दिखाई नहीं देती, फिर भी शरीर के सब कार्य आत्मा के अस्तित्व से ही सम्पन्न होते हैं, इसी प्रकार इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वह ओंकार-रूप ब्रह्म, यद्यपि इन बाह्य आँखों से दिखाई नहीं देता, तथापि अपनी दिव्य शक्ति से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का संचालन कर रहा है। प्रणव के साथ-साथ वेदों के सबसे महान् मत्र गायत्री का भी अर्थपूर्वक जप एवं ध्यान किया जा सकता है।
श्वास-प्रश्वास पर मन को एकाग्र करके प्राण के साथ उद्गीथ (ओंकार) की उपासना की जाती है। सभी इन्द्रियाँ सदोष हैं; क्योंकि आँखें शुभ-अशुभ दोनों प्रकार से देखती हैं। कान भद्र-अभद्र सुनते हैं, घ्राण गन्ध-दुर्गन्ध दोनों को ही सूँघते हैं, वाणी झूठ-सत्य बोलती है, रसना भक्ष्य-अभक्ष्य दोनों प्रकार का भक्षण करती है, मन में भी कुविचार एवं सुविचार आदि रूप में पूर्ण निर्दोषता नहीं है। प्राण पूर्ण निर्दोष एवं निर्विकार है। अत निर्विकार एवं निर्दोष ब्रह्म के साक्षात्कार के लिए हमें निर्दोष प्राण का आश्रय लेकर प्राण के साथ उद्गीथ-उपासना करनी चाहिए। जब भी समय उपलब्ध हो, बैठ जायें और द्रष्टा बनकर श्वास-प्रश्वास को दीर्घ एवं सूक्ष्म गति से लेते और छोड़ते हुए प्रत्येक श्वास के साथ ओ3म् का ध्यान करें। श्वास लेते और छोड़ते समय श्वास की गति इतनी सूक्ष्म होनी चाहिए कि स्वयं को भी श्वास तथा एक प्रश्वास चले। इस प्रकार श्वास को भीतर तक देखने का भी प्रयत्न कीजिए। प्रारम्भ में श्वास के स्पर्श की अनुभूति मात्र नासिकाग्र पर होगी। धीरे-धीरे आप श्वास के गहरे स्पर्श को भी अनुभव कर सकेंगे। इस प्रकार कुछ समय तक श्वास के साथ द्रष्टा (साक्षी)-भावपूर्वक ओंकार जप करने से ध्यान स्वत होने लगता है। यही सहजयोग है तथा ध्यान करते -करते साधक सच्चिदानन्द-स्वरूप ब्रह्म के स्वरूप में तद्रूप होता हुआ समाधि के अनुपम दिव्य आनन्द को भी प्राप्त कर लेता है। साधक को सोते समय भी इस प्रकार ध्यान करते हुए सोना चाहिए, ऐसा करने से निद्रा भी योगमयी हो जाती है और साधक का सम्पूर्ण जीवन योगमय होने लगता है।
इस प्रकार प्रत्येक मुमुक्षु को प्रतिदिन कम से कम एक घण्टा जप, ध्यान एवं उपासना अवश्य करनी चाहिए। ऐसा करने पर इसी जन्म में सम्पूर्ण दुःखों की समाप्ति और परमपिता परमेश्वर की प्राप्ति या अनुभूति हो सकती है। यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि जीवन का मुख्य लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार एवं प्रभु-प्राप्ति है, शेष सब कार्य और लक्ष्य गौण हैं। यदि हमने इस जीवन में अभी से ईश्वर-साक्षात्कार के मार्ग पर बढ़ना प्रारम्भ नहीं किया, तो उपनिषद् के ऋषि कहते हैं, महती विनष्टि है। इसलिए योग एवं ध्यान हमारे जीवन की सर्वोच्च आवश्यकता है।
8.समाधि
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि। (योगसूत्र- 3.3)
ध्यान में जब केवल ध्येयमात्र (ईश्वर) के स्वरूप या स्वभाव को प्रकाशित करनेवाला अपने स्वरूप से शून्य जैसा होता है, तब उसे समाधि कहते हैं। आनन्दमय, ज्योतिर्मय एवं शान्तिमय परमेश्वर का ध्यान करता हुआ साधक ओंकार ब्रह्म परमेश्वर में इतना तल्लीन, तन्मय एवं तद्रूप-सा हो जाता है कि वह स्वयं को भी भूल-सा जाता है, मात्र भगवान् के दिव्य आनन्द का अनुभव होने लगता है, यही स्वरूपशून्यता है। मृत्युञ्जय महायोगी महर्षि दयानन्द जी महाराज कहते हैं कि ध्यान एवं समाधि में इतना ही भेद है कि ध्यान में तो ध्यान करने वाला, जिस मन से, जिस तत्त्व का ध्यान करता है, वे तीनों (ध्याता, ध्येय और ध्यान) विद्यमान रहते हैं। परन्तु समाधि में केवल परमेश्वर के आनन्दमय, शान्तिमय, ज्योतिर्मय स्वरूप एवं दिव्य-ज्ञान-आलोक में आत्मा निमग्न हो जाता है, वहाँ तीनों का भेदभाव नहीं रहता। जैसे मनुष्य जल में डुबकी लगाकर थोड़ी समय भीतर ही भीतर रुका रहता है, वैसे ही जीवात्मा परमेश्वर के आनन्द में मग्न होकर समाधि जाता है, वैसे ही परमेश्वर के दिव्यज्ञान के आलोक में आत्मा प्रकाशमय होकर अपने शरीर आदि को भी भूले हुए के समान जानकर स्वयं को परमेश्वर के प्रकाश-स्वरूप आनन्द और पूर्ण ज्ञान से परिपूर्ण करने को समाधि कहते हैं।
श्रीभोज महाराज समाधि का अर्थ इस प्रकार करते हैं-
सम्यगाधीयत एकाग्रीक्रियते विक्षेपान् परिहृत्य मनो यत्र स समाधि।
जिसमें मन को विक्षेपों से हटाकर यथार्थता से धारण किया जाता है, अर्थात् एकाग्र किया जाता है, वह समाधि है। योगदर्शन के प्रथम पाद में वर्णित सवितर्क समापत्ति को ध्यान की एक अवस्था समझना चाहिए; क्योंकि उसमें शब्द, अर्थ एवं ज्ञान के विकल्प होते हैं और निर्वितर्क समापत्ति को समाधि की अवस्था समझना चाहिए। सप्रज्ञात समाधि की उन्नत अवस्था में ऋतम्भरा प्रज्ञा साधक को भगवप्रसाद के रूप में प्राप्त होती है। इसके बाद समाधि की भी उन्नत श्रेणी है- निर्बीज समाधि। इस स्थिति में संसार के विषय-भोग-वासनाओं के चित्त में संस्कार भी नहीं रहते , ‘संस्कारों’ के बीज-सहित नाश होने पर सब वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है। फिर भव-बन्धन में बाँधने की सम्भावना भी नष्ट हो जाती है, इसे ‘निर्बीज समाधि’ कहते हैं। यह योग की अथवा जीवन की पूर्णता है, जिसे प्राप्त करके महर्षि व्यास के शब्दों में योगी कहता है-
प्राप्तं प्रापणीयं, क्षीणाः क्षेत्तव्याः क्लेशाः, छिन्न श्लिष्टपर्वा भवसंक्रम।
यस्याविच्छेदाज्जनित्वा म्रियते मृत्वा च जायत इति।
ज्ञानस्यैव परा काष्ठा वैराग्यम्। एतस्यैव हि नान्तरीयकं कैवल्यमिति।
(योगसूत्र-व्यासभाष्य-1.16)
ज्ञान की पराकाष्ठा (चरम सीमा) ही वैराग्य है। समाधि द्वारा ज्ञान के इस उच्चतम क्षितिज की प्राप्ति होने पर मोक्ष अवश्यम्भावी है, जिसे पाकर योगी इस प्रकार अनुभव करता है कि प्राप्त करने योग्य सब कुछ पा लिया, क्षीण करने योग्य अविद्यादि क्लेश (अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेश) नष्ट हो गये हैं, जिसके पर्व (खण्ड) मिले हुए हैं, ऐसा भव-संक्रमण (एक देह से दूसरे देह की प्राप्ति-रूप संसार का आवागमन) छिन्न-भिन्न हो गये हैं, जिसके छिन्न-भिन्न होने से प्राणी उत्पन्न होकर मरता है और मरकर पुन उत्पन्न होता है। इस प्रकार यहाँ संक्षेप में समाधि का वर्णन किया गया।