वानस्पतिक नाम : Musa paradisiaca Linn.(म्यूजा पैराडिजिएका) Syn-Musa sapientum Linn.
कुल : Musaceae (म्यूजेसी)
अंग्रेज़ी नाम : Banana tree (बनाना ट्री)
संस्कृत-कदली, वारणा, मोचा, अम्बुसारा, अंशुमतीफला, वारणबुसा, रम्भा, काष्ठीला ; हिन्दी-केला, कदली, केरा; असमिया-कोल (Kol), तल्हा (Talha); उड़िया-कोदोली (Kodoli), रामोकोदिली (Ramokodili); उर्दु-केला (Kela); कन्नड़-बालेहन्नु (Balehannu), कदली (Kadali); गुजराती-केला (Kela); तमिल-कदली (Kadali), वलई (Valai); तेलुगु-अरटि (Arati), कदलमु (Kadalamu); बंगाली-केला (Kela), कोला (Kola),
कोदली (Kodali); नेपाली-केरा (Kera); पंजाबी-केला (Kela), खेला (Khela); मराठी-केला (Kela), कदली (Kadali); मलयालम-वला (Vala), क्षेत्रकदली (Chetrakadali), कदलम (Kadalam)।
अंग्रेजी-प्लेन्टेन (Plantain), बनाना (Banana), ऐडम्स् फिग (Adam’s Fig); अरबी-शाजरातुल्ताह्ल (Shajratultahl)फारसी-तुहलतुला (Tuhltula), मौज (Mouz); , मौज (Mouz)।
परिचय
केले का प्रयोग प्राचीन काल से चिकित्सा की दृष्टि से किया जाता है। कई स्थानों पर केले के पत्तों में भोजन ग्रहण करने का विधान है। केले के वृक्ष को पवित्र मानकर उसकी पूजा भी की जाती है। प्राचीन आयुर्वेदीय निघण्टुओं में केले की कई प्रजातियों का उल्लेख प्राप्त होता है। धन्वन्तरी निघण्टु के मतानुसार केले की दो प्रजातियां 1. कदली तथा 2. काष्ठकदली होती हैं। राजनिघण्टु के मतानुसार केले की चार प्रजातियां 1. कदली, 2. काष्ठकदली, 3. गिरीकदली तथा 4. सुवर्णमोचा पाई जाती हैं। भावप्रकाश-निघण्टु के मतानुसार भी केले की कई प्रजातियां जैसे
माणिक्य, मर्त्य, अमृत तथा चम्पकादि पाई जाती हैं। यह मूलत बिहार एवं पूर्वी हिमालयी क्षेत्रों में 1400 मी की ऊँचाई पर पाया जाता है। समस्त भारत में विशेषत उत्तर प्रदेश, केरल, तमिलनाडू तथा आँध्र प्रदेश में इसकी खेती की जाती है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
केला कषाय, मधुर, शीत, गुरु, कफवर्धक; वातशामक, रुचिकारक, विष्टम्भि, बृंहण, वृष्य, शुक्रल, दीपन, सन्तर्पण, ग्राही, संग्राही, बलकारक, हृद्य, स्निग्ध तथा तृप्तिदायक होता है। यह तृष्णा, दाह, क्षत, क्षय, नेत्ररोग, मेह, शोष, कर्णरोग, अतिसार, रक्तपित्त, बलास (कफ), योनिदोष, कुष्ठ, क्षुधा, विष, व्रण, सोमरोग तथा शूलनाशक होता है।
केले का पुष्प तिक्त, कषाय, ग्राही, दीपन, उष्ण, स्निग्ध, बलकारक, केश्य, हृद्य, वस्तिशोधक, कफपित्त-शामक, वातकारक, कृमिशामक; रक्तपित्त, प्लीहाविकार, क्षय, तृष्णा, ज्वर तथा शूल-नाशक होता है।
केले के पत्र शूल शामक, वृष्य, हृद्य, बलकारक तथा कान्तिवर्धक होते हैं। यह रक्तपित्त, रक्तदोष, योनिदोष, अश्मरी, मेह, नेत्ररोग तथा कर्णरोग-नाशक होते हैं।
केले का कच्चा फल मधुर, कषाय, शीतल; गुरु, स्निग्ध, विष्टम्भि, बलकारक, दुर्जर (देर से पचने वाला), दाह, क्षत, क्षय शामक तथा वात पित्तशामक होता है।
औषधीय प्रयोग, मात्रा एवं विधि
प्रयोज्याङ्ग : पञ्चाङ्ग, मूल, काण्ड, पुष्प, फल तथा पत्र।
मात्रा : स्वरस 10-20 मिली। चूर्ण 10-20 ग्राम चिकित्सक के परामर्शानुसार।
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