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प्राचीन काल से जौ का उपयोग कई कामों के लिए किया जाता रहा है। ऋषियों मुनियों के आहारों में जौ भी शामिल होता था। इससे आप समझ ही सकते हैं जौ कितना पौष्टिकारक आहार है। जौ गेंहूं के जाति का ही एक आहार है जिसको पीसकर आटा बनाकर खाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
इसलिए आयुर्वेद में जौ का इस्तेमाल कई बीमारियों के इलाज के लिए औषधि के रुप में किया जाता है। जौ पेट दर्द, भूख न लगने की बीमारी, अत्यधिक प्यास लगना, दस्त, सर्दी, जुकाम जैसे अनेक रोगों से राहत पाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। चलिये जौ के बारे में विस्तार से जानते हैं-
जौ का प्राचीन वैदिक काल तथा आयुर्वेदीय निघुण्टुओं एवं संहिताओं में वर्णन मिलता है। भावप्रकाश-निघण्टु में तीन प्रकार के भेदों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अथर्वेद में भी यव का वर्णन प्राप्त होता है। यह 60-150 सेमी ऊँचा, सीधा, शाकीय पौधा होता है। इसके पत्ते भालाकार, रेखित, अल्प संख्या में, सीधे, चपटे, 22-30 सेमी लम्बे, 12-15 मिमी चौड़े होते हैं। इसके फूल के स्पाईक (शूक सहित) 20-30 सेमी लम्बे, 8-10 मिमी चौड़े, चपटे होते हैं। इसके फल 9 मिमी लम्बे, छोटे नुकीले सिरों से युक्त होते हैं। यह दिसम्बर से अप्रैल महीने में फलता-फूलता है।
जौ प्रकृति से कड़वा, मधुर, तीखा, ठंडा, लघु, फिसलने वाला, रूखा, कफ पित्त कम करने वाला, बल बढ़ाने वाले, वृष्य (libido), पुरीषजनक, अल्सर होने पर खाद्द रुप में; मूत्र संबंधी समस्या से राहत दिलाने वाला होता है।
यह व्रण,मधुमेह, रक्तपित्त (कान-नाक से खून बहना), कण्ठ रोग (गले का रोग), त्वक् रोग (त्वचा संबंधी रोग), पीनस (Rhinitis), श्वास, खांसी, पाण्डु या एनीमिया, ग्रहणी (Irritable bowel syndrome) , प्लीहारोग, अर्श या पाइल्स तथा मूत्र रोग नाशक होता है। शूक रहित जौ बलवर्द्धक, वीर्यवर्धक, वृष्य तथा पुष्टिकारक होता है।
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जौ का वानास्पतिक नाम Syn-Hordeum sativum Pers., Hordeum nigrum Willd.होता है और जौ Poaceae (पोएसी) कुल का होता है। लेकिन भारत के अन्य प्रांतों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। जैसे-
Barley in-
जौ में फॉस्फोरस एसिड, सैलीसिलिक एसिड, पोटाशियम, कैल्शियम आदि पौष्टिक गुण होने के कारण ये कई सारे बीमारियों के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है। चलिये आगे इसके बारे में विस्तार से जानते हैं।
उम्र के साथ मोतियाबिंद की शिकायत हर वृद्धा या वृद्ध को होती है। जौ का औषधिय गुण इसके कष्ट को कम करने में सहायता करता है। 20-30 मिली त्रिफला के काढ़े में जौ को पकाकर, उसमें घी मिलाकर खाने से मोतियाबिंद में लाभ होता है।
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मौसम बदला कि नहीं बच्चे से लेकर बड़े-बूढ़े सबको सर्दी-खांसी की शिकायत हो जाती है। जौ के सत्तू में घी मिलाकर खाने से नजला, जुकाम, खाँसी तथा हिचकी रोग में लाभ होता है। इसके अलावा जौ के काढ़े (15-30 मिली) को पीने से प्रतिश्याय (Coryza) में लाभ होता है।
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डिप्थिरिया के परेशानी को कम करता है जौ। जौ के 5-10 मिली पत्ते के रस में 500 मिग्रा कृष्णमरिच चूर्ण मिलाकर सेवन करने से रोहिणी (डिप्थिरिया) में लाभ होता है।
गलसुआ की परेशानी से राहत दिलाने में जौ का औषधीय गुण बहुत फायदेमंद होता है। सरसों, नीम के पत्ते, सहजन के बीज, अलसी, यव तथा मूली बीज को खट्टी छाछ में पीसकर गले में लेप करने से गलगण्ड या गलसुआ में लाभ होता है।
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सांस लेने की तकलीफ से राहत दिलाने में जौ बहुत काम आता है। जौ के सत्तू को मधु के साथ सेवन करने से सांस की बीमारियों में अतिशय लाभ होता है।
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अक्सर किसी बीमारी के साइड इफेक्ट के तौर पर प्यास लगने की समस्या होती है। इस समस्या से राहत पाने के लिए भुने अथवा कच्चे जौ की पेया बनाकर उसमें मधु एवं चीनी मिलाकर पीने से तृष्णा (अत्यधिक प्यास) बुझ जाती है।
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आज कल के जीवनशैली में खान-पान में असंतुलन सभी से हो जाता है फल ये होता है कि हाइपरएसिडिटी की समस्या होने लगती है। छिलका रहित जौ, वासा तथा आँवले से निर्मित काढ़े (15-30 मिली) में दालचीनी, इलायची और तेजपत्ता का चूर्ण तथा मधु मिलाकर पीने से अम्लपित्त या हाइपरएसिडिटी में लाभ होता है।
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गुल्म रोग से राहत पाने के लिए जौ से बनाए खाद्य पदार्थों में अधिक मात्रा में स्नेह एवं लवण या नमक मिलाकर दूध के साथ सेवन करने से लाभ होता है।
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अक्सर मसालेदार खाना खाने या असमय खाना खाने से पेट में गैस हो जाने पर पेट दर्द की समस्या होने लगती है। जौ के आटे में यव क्षार एवं मट्ठा मिलाकर पेट पर लेप करने से दर्द से राहत मिलती है।
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आजकल की भाग-दौड़ और तनाव भरी जिंदगी ऐसी हो गई है कि न खाने का नियम और न ही सोने का। फल ये होता है कि लोग को मधुमेह या डायबिटीज की शिकार होते जा रहे हैं। मधुमेह में जौ से बने हुए विविध-प्रकार के आहार का सेवन करना चाहिए। छिलका-रहित जौ के चूर्ण को त्रिफला काढ़ा में रातभर भिगोकर, छाया में शुष्ककर उसका सत्तू बनाकर मधु मिलाकर, मात्रानुसार प्रतिदिन पीने से प्रमेह या डायबिटीज में लाभ होता है।
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मूत्र संबंधी बीमारी में बहुत तरह की समस्याएं आती हैं, जैसे- मूत्र करते वक्त दर्द या जलन होना, मूत्र रुक-रुक कर आना, मूत्र कम होना आदि। जौ इस बीमारी में बहुत ही लाभकारी साबित होता है। भुने हुए जौ, जौ का सत्तू आदि जौ से बनाए आहार द्रव्यों का नियमित सेवन करने से प्रमेह, मूत्रत्याग में कठिनता, सफेद दाग, कोढ़ आदि रोगों को उत्पन्न नहीं होने देता है।
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अगर मौसम के बदलने के वजह से या किसी संक्रमण के कारण बुखार हुआ है तो उसके लक्षणों से राहत दिलाने में जौ बहुत मदद करता है।
यव से बनाए यवागू या पेया में मधु मिलाकर सेवन करने से पित्त के बढ़ जाने के कारण उल्टी और पेट दर्द, बुखार, जलन तथा अत्यधिक पिपासा से राहत मिलती है।
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अक्सर लंबे समय तक बीमार रहने के कारण खाने की इच्छा चली जाती है। भुने हुए यव से बनाए मण्ड तथा यव के डण्ठल की 65 मिग्रा भस्म में शहद मिलाकर सेवन करने से अजीर्ण और खाने की इच्छा बढ़ाने में मदद मिलती है।
अगर ज्यादा मसालेदार खाना, पैकेज़्ड फूड या बाहर का खाना खा लेने के कारण दस्त है कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहा तो जौ का घरेलू उपाय बहुत काम आयेगा। शुष्क यव से बनाए काढ़े का सेवन करने से अतिसार या दस्त में लाभ होता है।
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अक्सर उम्र बढ़ने के साथ जोड़ों में दर्द होने की परेशानी शुरू हो जाती है लेकिन जौ का सेवन करने से इससे आराम मिलता है। वातरक्त या गठिया रोग में लालिमा, पीड़ा तथा दाह हो तो रक्तमोक्षण के पश्चात मुलेठी चूर्ण, दूध एवं घी युक्त जौ के आटे का लेप करने से लाभ प्राप्त होता है।
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जांघ की जकड़न कम करने के लिए जौ का सेवन इस तरह से करने में जल्दी आराम मिलता है। यव से बने भोज्य पदार्थो का सेवन उरुस्तम्भ या जांघ के अचलपन में लाभकारी होता है।
हर्पीस के कष्ट से आराम पाने के लिए समान मात्रा में जौ तथा मुलेठी से बनाए पेस्ट में घी मिलाकर विसर्प या हर्पिज पर लेप करने से लाभ होता है।
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कुष्ठ रोग में जौ से बनाए गए भोज्य पदार्थ का सेवन करना पथ्य है।
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समान मात्रा में जौ, मुलेठी तथा तिल के चूर्ण में घी मिलाकर गुनगुना करके घाव पर लेप करने से व्रण में लाभ होता है।
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अगर आप मुँहासों के कारण परेशान रहते हैं तो माजूफल के छिलके को यव के साथ घोंट कर मुंह पर लेप करने से मुँहासों दूर होते हैं।
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आजकल अर्थराइटिस की समस्या उम्र देखकर नहीं होती है। दिन भर एसी में रहने के कारण या बैठकर ज्यादा काम करने के कारण किसी भी उम्र में इस बीमारी का शिकार होने लगे हैं। इससे राहत पाने के लिए जौ का इस्तेमाल ऐसे कर सकते हैं। जौ के सत्तू को पानी में घोलकर, मंथ बनाकर सेवन करने से अत्यधिक प्यास, जलन (दाह), रक्तपित्त और अर्थराइटिस में लाभ होता है।
आजकल की सबसे बड़ी परेशानी है वजन का बढ़ना। जौ, आँवला तथा मधु का नियमित सेवन करने से तथा नित्य व्यायाम एवं अजीर्ण या अपच में भोजन न करने से मोटापा कम होता है।
अगर किसी चोट के कारण या बीमारी के वजह से किसी अंग में हुए सूजन से परेशान है तो जौ के द्वारा किया गया घरेलू इलाज बहुत ही फायदेमंद होता है। जौ को पीसकर शोथ या सूजन प्रभावित स्थान पर लगाने से सूजन कम होता है।
आयुर्वेद में जौ के बीज का प्रयोग औषधि के रुप में सबसे ज्यादा किया जाता है।
बीमारी के लिए जौ के सेवन और इस्तेमाल का तरीका पहले ही बताया गया है। अगर आप किसी ख़ास बीमारी के इलाज के लिए जौ का उपयोग कर रहे हैं तो आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह ज़रूर लें।
चिकित्सक के परामर्श के अनुसार-
-जौ का 20-40 मिली रस,
-क्षार 60-250 मिग्रा,
-2-5 ग्राम चूर्ण और
-30-40 मिली जूस ले सकते हैं।
भारत वर्ष में अति प्राचीन काल से यव या जौ का प्रयोग किया जाता रहा है। भारत में यह हिमालय के मैदानी एवं पहाड़ी क्षेत्रों में लगभग 3000 मी की ऊँचाई तक, बहुधा गंगा के मैदानी क्षेत्रों, कश्मीर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं गुजरात में प्राप्त होता है तथा इसकी खेती की जाती है।
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