वानस्पतिक नाम : Piper betle Linn. (पाइपर बीटेल)
Syn-Chavica betle (Linn.) Miq.
कुल : Piperaceae (पाइपरेसी)
अंग्रेज़ी नाम : Betel leaf (बीटेल लीफ)
संस्कृत-नागवल्ली, नागवल्लरी, सप्तशिरी, ताम्बूलवल्ली, ताम्बूली, नागिनी, ताम्बूल, भक्ष्यपत्रा, भुजङ्गलता, मुखभूषण, भुजङ्गवल्ली, दिवाभीष्टा, नागवल्लिका, पर्ण, पर्णलता, सप्तलता, फणिवल्ली, ताम्बूलवल्लिका, पर्णगृहाशया, वित्तिका, फणिलता; हिन्दी-पान; उर्दू-पान (Pan); उड़िया-पानो (Pano); कोंकणी-पान (Pan); कन्नड़-अम्बाडीयेले (Ambadiyele); गुजराती-नागरवेल (Nagarbel), पान (Paan); तेलुगु-तमालापाकु (Tamalapaku); तमिल-वेत्तिलै (Vettilei); बंगाली-खासीपान (Khasipan); नेपाली-पान (Paan); मराठी-नागवेल (Nagvel); मलयालम-वेत्तिल (Vettila)।
अंग्रेजी-बीटेल वाइन (Betel vine), बीटेल पेपर (Betel pepper); अरबी-तंबुल (Tambul); फारसी-तंबोल (Tambol), बर्गे तन्बोल (Berge tambol)।
परिचय
यह उष्ण और आर्द्र प्रदेशों में विशेषत बिहार, बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा श्रीलंका में बहुत बोया जाता है। बनारस का पान सर्वोत्तम माना जाता है। प्राचीन महाभारत, रामायण आदि ऐतिहासिक एवं साहित्य ग्रन्थों में इसका प्रचुर उल्लेख मिलता है। इसकी उत्पत्ति के विषय में बरई (तम्बोली, पान का धंधा करने वाली जाति विशेष) लोगों में यह कथा प्रचलित हैं, कि महाभारत युद्धोपरान्त जब पांडवों का अश्वमेध प्रंग में मांगलिक कार्यार्थ इस प्रकार के विशिष्ट द्रव्य की आवश्यकता प्रतीत हुई, तब उन्होंने पाताललोक में इसकी प्राप्ति के लिए वासुकी नाम के पास अपना एक दूत भेजा। वासुकी ने अपनी करागुंल का अग्रभाग काट कर दिया और कहा कि इसे भूमि में रोपण कर देने से पान की बेल उत्पन्न होगी, जिससे पांडवों की अभीष्ट पूर्ति होगी। पांडवों ने वैसा ही किया और इसकी उत्पत्ति हुई। इसी से नागबल्ली नाम इसे दिया गया है। अतिप्राचीनकाल से इसका व्यवहार मुखशुद्धि, सुगन्धि एवं रूचिवृद्धि के लिए तथा देवपूजनादि शुभकर्मों एवं उत्सवादि में सुस्वागतार्थ किया जा रहा है। प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों में यद्यपि कोई खास औषधि प्रयोग में इसका उल्लेख नहीं है तथा चरक के सूत्रस्थान में मात्राशितीय अध्याय में रूचिसौगन्ध्यवर्धनार्थ जायफल, कस्तूरी, इलायची, कंकोल, सुपारी के साथ इसे मुख में धारण करने का विधान है तथा सुश्रुत के अन्नपान विधि अध्याय में भी इसका उल्लेख है। राजनिघण्टु में श्रीवाटी, अम्लवाटी, अम्लरसा आदि नामों से सात प्रकार के पानों का वर्णन किया गया है।
इसकी प्रसरणशील, कोमल मूल युक्त लता होती है। इसके काण्ड अर्धकाष्ठमय, चिकने, मजबूत, पर्व पर अधिक स्थूल, अनेक, छोटी अपस्थानिक मूल के सहारे ऊपर चढ़ने वाले होते हैं। इसके पत्ते पीपल के पत्तों के समान बड़े चौड़े तथा हृदयाकार प्राय सात शिराओं से युक्त, चिकने, मोटे, अग्र भाग पर नोंकदार, चमकीले हरित वर्ण के होते हैं।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
धन्वन्तरि निघंटु ने पान पत्र के तेरह ऐसे गुणों का वर्णन किया है, जो स्वर्ग में भी दुर्लभ है। पान, चरपरा, कटु, उष्ण, मधुर, क्षारगुणयुक्त, कसैला तथा वात, कृमि, कफ और दुख को हरने वाला है। यह धारणशक्ति और कामशक्ति का वर्धन करता है। भाव प्रकाश के मतानुसार पान विषघ्न, रुचिकारक, सुगन्धित, तीक्ष्ण, मधुर, हृदय के लिए हितकारी, जठराग्नि को दीप्त करने वाला, कामोद्दीपक, बलकारक, दस्तावर तथा मुखशोधक है।
राजनिघंटु के मतानुसार यह चरपरा, तीक्ष्ण, कड़वा, वातकारक तथा खाँसी में लाभप्रद है। यह रुचिकारक, दाहजनक और अग्निदीपक है। पान पत्र-तीक्ष्ण, गर्म, कड़वा, पित्त को प्रकुपित करने वाला, सुगन्धित, विशद्, संस्रन, लालस्राव-जनन, कण्डू मल और दुर्गन्ध का नाश करने वाला है। पान का तैल कफज शूल, व श्वासनाड़ी-प्रदाह में विशेष उपकारी है। इसमें सड़न-रोधक-शक्ति है। पुराना पान अत्यन्त रसभरा, रुचिकारक, सुगन्धित, मधुर, तीक्ष्ण, दीपन, कामोद्दीपक, बलकारक, रेचक और मुख को शुद्ध करने वाला है। नवीन पान त्रिदोषकारक, दाहजनन, अरुचिकारक, रक्त को दूषित करने वाला, विरेचक और वमनकारक है। वहीं पान अगर बहुत दिनों तक जल से सींचा हुआ हो तो श्रेष्ठ होता है। यह रुचिकारक, वर्ण्य और त्रिदोषनाशक है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
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प्रयोज्याङ्ग : पत्र, मूल, फल एवं तैल।
मात्रा : स्वरस 5-10 मिली।
पान खाने से लाभ : पान खाना भी एक व्यसन है। लगातार खाने से इसकी आदत पड़ जाती है। पहली बार खाने से मस्तिष्क पर कुछ खास असर मालूम पड़ता है; जैसे कुछ चक्कर आना, घबराहट, बेचैनी आदि, किन्तु पान खाने की आदत बन जाने पर ये सब शिकायतें धीरे-धीरे दूर हो जाती हैं। पान के चूसने पर लार की मात्रा अधिक निकलती है, जिससे पाचन क्रिया में मदद मिलती है, परन्तु अधिक मात्रा में पान का सेवन तम्बाकू तथा सुपारी के साथ अहितकर है।
दोष : तीक्ष्ण, उष्ण और पित्तप्रकोपक होने के कारण रक्तपित्त, उरक्षत, मूर्च्छा आदि पैत्तिक-विकारों में निषिद्व है। पान के अधिक खाने से भूख कम लगती है। इसलिए इसको कम मात्रा में खाना चाहिए। इसमें हेपिक्साइन नामक जहरीला पदार्थ होता है। सुपारी में अर्कीडाइन नामक विषैला पदार्थ रहता है, इसलिए सुपारी भी कम लेनी चाहिए। ज्यादा कत्थे से फेफडे में खराबी पैदा हो जाती है। अधिक चूना दाँतों को खराब कर देता है।
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