वानस्पतिक नाम : Dioscorea bulbifera Linn. (डायोस्कोरिआ बल्बिफेरा) Syn-Dioscorea crispata Roxb.
कुल : Dioscoreaceae
(डायोस्कोरिएसी)
अंग्रेज़ी नाम : Potato yam (पोटैटो याम)
संस्कृत-वाराहवदना, गृष्टिक, वाराही, वाराहीकन्द; हिन्दी-बाराही कन्द, गेंठी; उर्दू-जमीनेकन्द (Zaminekand); उड़िया-पीताल (Pital), पीता आलु (Pita alu); कोंकणी–करांडो (Karando); गुजराती-सौरीया (Sauriya), वाराहीकन्द (Varahikanda), डुककरकंद (Dukkarkand), बणा बेल (Banabeil); तमिल-कट्टूवकीलंगू (Kattukkilangu), कोडीकीलंगू (Kodikilangu); तेलुगु-चेडूपोड्डूडुम्पो (Chedupaddudumpa); बंगाली-बनालु (Banalu), चमालु (Chamalu), रतालु (Ratalu); पंजाबी-जमीनखन्द (Zaminkhand), कुकुर टोरॉल (Kukur toral), वन तरुल (Vantarul); मराठी-गठालु (Gathalu), मतारु (Mataru), कन्द (Kand), करुकरीन्दा (Karukarinda); मलयालम-कट्टुकाचिल (Kattukachil), चेडुपाडुडुम्पा (Chedupadudumpa), मलाकायापेंडालामु (Malakakayapendalamu)।
अंग्रेजी-बल्ब बियरिंग याम (Bulb bearing yam); फारसी-जमीनेकांडा (Zaminekanda)।
परिचय
यह सुन्दर लता भारत के हिमालयी क्षेत्रों में लगभग 1850 मी की ऊँचाई तक वर्षा-ऋतु में सड़क के किनारे वृक्षों पर फैली हुई पायी जाती है। इसके कन्द में छोटे-छोटे रेशे रहते हैं जो दिखने में वाराह (सुअर) के बाल जैसे दिखते हैं, इसलिए इसे वाराही कन्द कहते हैं। इसके पत्र के अक्ष में पत्र प्रकलिका (Bulbil) होती है जो भूरे वर्ण की तथा गोलाकार होती है, जिससे नये पौधे निकलते हैं। इसे वायु कन्द (Air potato) भी कहते हैं। इसको उबालकर या भून कर खाते हैं। इसका कन्द विशेष बड़ा नहीं होता है। यह देखने में सूकर के मुख जैसा एक ओर मोटा एवं दूसरी ओर पतला, दृढ़, सघन लम्बे रोमों से युक्त भीतर श्वेत रंग का तथा ऊपर काले या मटमैले-भूरे रंग का होता है। इसको काटने या नख से कुरेदने पर दूध निकलता है यह स्वाद में कड़वा एवं चरपरा होता है।
उपरोक्त वर्णित वाराही कन्द की मुख्य प्रजाति के अतिरिक्त निम्नलिखित प्रजाति का प्रयोग भी चिकित्सा में किया जाता है। यह प्रजाति विशषतया मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश के जंगलों में पाई जाती है।
Dioscorea pentaphylla Linn. (पंचपत्री वाराहीकन्द)- इसकी वारही के जैसी आरोही लता होती है। तनों के आधार पर छोटे-छोटे कांटे पाए जाते हैं। नर एवं मादा पुष्प अलग-अलग मंजरी में लगे हुए होते हैं। इसके कंद लम्बे, गहरे, धूसर या काले रंग के तथा रोम युक्त होते हैं। कंद का प्रयोग सर्वांङ्ग शूल, विबंध, प्रवाहिका, दाह तथा शोथ की चिकित्सा में किया जाता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
वाराही कन्द मधुर, कटु, तिक्त, उष्ण, लघु, स्निग्ध तथा वातकफशामक होता है।
वाराही रसायन, स्वरवर्धक, वृष्य, बलकारक, वर्ण्य, शुक्रवर्धक, हृद्य, दीपन, पित्तवर्धक, आयुवर्धक, मधुमेह, कुष्ठ, कृमि, विष, वातज गुल्म तथा मूत्रकृच्छ्र में लाभप्रद होता है।
इसका कंद तिक्त, कषाय, बलकारक, परिवर्तक, वाजीकर, क्षुधावर्धक तथा कृमिघ्न होता है।
यह अजीर्ण, श्वित्र, अर्श, प्रवाहिका, फिरङ्ग, श्वासकष्ट, पित्तविकृति, अर्बुद तथा मूत्रकृच्छ्र शामक है।
यह मूत्रल एवं शोथहर क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
होता है।
प्रयोज्याङ्ग :कंद तथा पत्र।
मात्रा :कंद चूर्ण 2-4 ग्राम या चिकित्सक के परामर्शानुसार।
आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुसार, त्रिफला चूर्ण पेट से जुड़ी समस्याओं के लिए बेहद फायदेमंद है. जिन लोगों को अपच, बदहजमी…
डायबिटीज की बात की जाए तो भारत में इस बीमारी के मरीजों की संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही…
मौसम बदलने पर या मानसून सीजन में त्वचा से संबंधित बीमारियाँ काफी बढ़ जाती हैं. आमतौर पर बढ़ते प्रदूषण और…
यौन संबंधी समस्याओं के मामले में अक्सर लोग डॉक्टर के पास जाने में हिचकिचाते हैं और खुद से ही जानकारियां…
पिछले कुछ सालों से मोटापे की समस्या से परेशान लोगों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है. डॉक्टरों के…
अधिकांश लोगों का मानना है कि गौमूत्र के नियमित सेवन से शरीर निरोग रहता है. आयुर्वेदिक विशेषज्ञ भी इस बात…